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44वां अंक प्रकाशित

 दीपावली के समय लक्ष्मी पूजन, उसके पहले महालक्ष्मी पूजन एवं विविध तरह से लोक पूजन की परम्परा में इन दिनों मिट्टी की बनी मूर्तियों के इस्तेमाल का चलन है. कुछ साल पहले तक इन मूर्तियों को नदी, तालाब आदि में विसर्जित किया जाता था, लेकिन इधर जल-प्रदूषण के प्रति जागरुकता के चलते, आमजन इन मिट्टी की मूर्तियों को पानी में बहाने की बजाय पीपल, बरगद जैसे वृक्षों के नीचे रख जाते हैं, जहाँ से बारिश के समय ये मूर्तियाँ गीली होकर स्वतः ही मिट्टी में मिल जाती हैं.

हालाँकि ऐसा करने से भी प्रदूषण की समस्या खड़ी होती है लेकिन उतनी जबर नहीं, जितनी पानी में विसर्जन से होती थी. पढ़ा-लिखा वर्ग, देश के आमजन के इस रवैये से सहमत नहीं है और वह तो चाहता है कि मूर्ति घर में लाने की परम्परा का ही त्याग कर देना चाहिए. बहरहाल, फाल्गुन विश्व के इस बार के आवरण पर जो चित्र है, उसमें एक पीपल के वृक्ष के नीचे इस बार की दीपावली के बाद छोड़ी गई, देवी लक्ष्मी-महालक्ष्मी की मूर्तियाँ एवं देवी काली की तस्वीर आदि हैं. यह छायाचित्र कहीं भी, किसी भी शहर या कस्बे का हो सकता है और इसे देखकर मुंह चिढ़ाने  वाले अथवा अफ़सोस करने वाले अथवा लाचारगी जाहिर करने वाले हम लोग देश के किसी भी हिस्से के बाशिंदे हो सकते हैं...

सवाल यही कि हम-आप ऐसे चित्रों में बदलाव के लिए क्या करते हैं?


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