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ख्याली-पुलाव / पुष्पेन्द्र फाल्गुन
रास्ते से गुजरते समय एक विज्ञापन फलक ने ध्यान खींचा. ध्यान से देखने पर मालूम हुआ कि यह किसी की बदमाशी है. कांग्रेस के बैनर पर भाजपा का बैनर चढ़ाया गया था, जिसे किसी ने अपनी बदमाशी से अदभुत रुप दे दिया है.
इस नज़ारे ने कई ख्याल मुझ मूढ़-मगज के भीतर भर दिए,
जैसे-
- इस फलक पर पहले से कांग्रेस का बैनर लगा था, भाजपा ने बिना उसे हटाए अपना बैनर लगा दिया. दोनों बैनर अवैध रुप से लगाए गए हैं, जबकि विज्ञापन फलक जिस विज्ञापन एजेंसी का है, वह इन दोनों के बैनर उतारने की हिम्मत नहीं कर पाता.
- लगा कि देश उस विज्ञापन एजेंसी के फलक की तरह है, जिस पर राजनीतिक पार्टियाँ अपना-अपना अवैध कब्ज़ा जमाए हुए हैं.
- देश लोगों का है, लेकिन लोगों की मूल भावनाएं, राजनीतिक दलों की भावनाओं के पीछे कहीं दब-छिप सी गयी हैं. लोग यानी लोक यानी लोकतंत्र बस दूर से अपनी दबी भावनाओं के ऊपर चढ़ते इन राजनीतिक मुलम्मों का चश्मदीद मात्र है.
- किसी ने बदमाशी से दो राजनीतिक पार्टियों के बैनर को इस अंदाज में फाड़ा कि एक भ्रम सा होता है देखने वालों को कि फ़िलहाल जो पार्टी ऊपर है, वह नीचे वाली पार्टी की भावनाओं का सम्मान करती है, लेकिन एक जरा सी हवा चल जाए और ऊपर का फटा बैनर हवा में दो इंच ऊपर उड़कर सारी सच्चाई उजागर कर देता है...
- ख्याल है और क्योंकि मैं ख्याली पुलाव ही पका रहा हूँ, तो सोचता हूँ कि कितना ही अच्छा होता कि एक राजनीतिक दल दूसरे के खिलाफ जन-चेतना यात्रा आयोजित करती और दूसरा राजनीतिक दल अपने विरोधी की यात्रा का जगह स्वागत करता और उनकी आलोचना को सुनता और अपने काम और कार्यक्रमों को जन-हितकारी बनाता जाता...
- पर ख्याल तो ख्याल हैं... और मुझ जैसे नामाकूल के ख्यालों को लोकतंत्र में तवज्जो कहाँ?
और ये सारे ख्याल इस फाड़े गए बैनर को देखकर आए, यह ख्याल भी आया कि हमारे देश में जो थोड़ा-बहुत लोकतंत्र जिन्दा है, ऐसी अधूरी बदमाशियों की वजह से ही है. अधूरी बदमाशियों से कभी-कभार ऐसे भ्रमों की रचना हो जाती है कि लगता है कि लोकतंत्र बचा हुआ है...
हाँ असल लोकतंत्र से रुबरु होना है तो बदमाशी पूरी-पूरी करनी पड़ेगी... दोनों राजनीतिक दल के बैनर पूरे के पूरे हटाने पड़ेंगे तभी देश के फलक पर लगा असल बैनर दिखाई देगा.
देश कांग्रेस-भाजपा या और कोई राजनीतिक दल नहीं है... देश मैं और आप हैं... मैं और आप, दोनों, हम सब, सभी के सभी, इस देश से गायब हैं, इस देश में बस राजनीतिक दल हैं और उनकी राजनीति है...
यह तय करने का सही वक़्त है कि देश में लोकतंत्र चाहिए या राजनीतिक-तंत्र... अभी तय नहीं कर पाए तो न जाने कितने मुलम्मे चढ़ते चले जाएंगे और फिर अपने असल चेहरे तक पहुँचने में शायद ही हमें कभी कामयाबी मिलेगी...
बहरहाल, भीतर के पृष्ठों पर पढ़िए -
मूर्खता और धन-दौलत में क्या कोई सीधा सम्बंध है?/ छोटू भोयर का खेला हो गया /
भाषा और इतिहास / गोरख पाण्डेय की पाँच कविताएं / आम्बेडकर को पढ़ते हुए /
चचा साम के नाम मंटो का दूसरा ख़त / बेताल पच्चीसी की तीसरी कहानी
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अंक डाउनलोड करने के लिए लिंकपहली बात / पुष्पेन्द्र फाल्गुन
छोटू भोयर का खेला हो गया
नागपुर एवं विदर्भ की राजनीति में एक कद्दावर नेता की पहचान रखने वाले डॉक्टर छोटू भोयर के साथ राजनीतिक खेला हो गया. किसने किया यह खेला?
राजनीति ऐसी जगह है, जहाँ पद बहुत कम हैं और पदाकांक्षी या महत्वकांक्षी बहुत ज्यादा. भारत के राजनीतिक परिदृश्य में सबसे ज्यादा सुना जाने वाला और इतना ही ज्यादा नजरंदाज किया जाने वाला मुहावरा है, ‘दम घुटना.’
छोटू भोयर इसी मुहावरे यानी दम घुटने से पीड़ित थे. पीड़ित अपने राजनीतिक दल में थे, सो कुछ ताज़ी हवा खाने दूसरे राजनीतिक दल में चले गए. दूसरे राजनीतिक दल ने उन्हें ताज़ी-ताज़ी हवा खिलाई और फिर ऐसा उछाला कि वह चारों खाने चित होकर गिर पड़े. गिरते समय डॉक्टर साहब के सामने सबसे बड़ी दिक्कत यही थी कि वह ‘अरे! बाप रे!’, ‘लग गया रे!’, ‘गिर गया रे!’, ‘मर गया रे!’ जैसे दुखद उवाच को भी लाचार हो गए. ऊँचे से गिरना है पर अपना दर्द किसी को पता नहीं लगने देना है, राजनीति का यह नया पाठ साहब ने इन दिनों खूब शिद्दत से पढ़ा है.
भारतीय जनता पार्टी ने नागपुर एवं विदर्भ में कड़े और बड़े परिश्रम से अपने लिए जगह बनाई है, कहने के लिए यह भी कह सकते हैं कि कांग्रेस की नकारा नीतियों और इसी गुणतत्व वाले नेताओं ने अपनी करनी से भाजपा के लिए जगह बना दी. सत्ता के लिए जगह बनी तो पद की लालसा स्वमेव ही नेताओं और कार्यकर्ताओं में धूं-धूं कर जल उठी. सक्षम और कर्मठ नेताओं तथा कार्यकर्ताओं को पहले पदों पर बैठने अथवा पदों का सुख भोगने का मौका मिला, फिर जैसे-जैसे ये सक्षम नेता, क्रमशः बड़े से बड़े पद की तरफ बढ़ते गए, कम सक्षम एवं कम कर्मठ नेताओं को भी स्थानीय पदों पर बैठने का मौका मिला. इसी स्तर पर ईर्ष्या की राजनीति की शुरुआत होती है. कांग्रेस में ऐसे ही हुई और अब भाजपा भी इस रोग से पूरी तरह ग्रस्त है.
लालसा, महत्वकांक्षा पूरी न होने की दशा में विरोध और विद्रोह का दामन आकांक्षियों के हाथ लग ही जाता है. विधान परिषद की स्थानीय निकाय वाली सीट पर जब चुनाव घोषित हुआ तभी से छोटू भोयर की बेचैनी की खबरें मीडिया में प्रकाशित होने लगी थी. वह अपने लिए विधान परिषद की टिकट चाहते थे. पार्टी चंद्रशेखर बावनकुले को टिकट देने का मन बना चुकी थी. भाजपा में फ़िलहाल कोई तगड़ा ‘ओबीसी’ नेता नहीं है और पिछले कुछ समय से चंद्रशेखर बावनकुले जिस तरह से ओबीसी राजनीति कर रहे हैं, उससे पार्टी में उनका रसूख बढ़ा है, फिर चंद्रशेखर बावनकुले के पास ‘पार्टी फण्ड’ जुटाने की अकूत क्षमता है. छोटू भोयर सीधे-सादे राजनीतिक नेता हैं. अपने काम से काम रखने वाले, अपने मतदाताओं के काम आने वाले, लेकिन जाने किसके बहकावे में आकर इधर कुछ वक्त से महत्वकांक्षी हो गए.
पार्टी ने जब छोटू भोयर को टिकट नहीं दिया तो उन्होंने कांग्रेस पार्टी का दरवाजा खटखटाया. कांग्रेस पार्टी तो इन दिनों दस्तक के इंतजार में ही रहती है. दिल्ली तक छोटू भोयर के कांग्रेस प्रवेश की चर्चा हुई. पार्टी ने उन्हें अपना अधिकृत उम्मीदवार बनाया. छोटू भोयर के बगावत से दुखी भाजपा के अत्यंत कद्दावर नेता ने कांग्रेस के एक कद्दावर नेता (जो गले तक भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैं) को उन्हीं के एक बड़े घोटाले की याद दिलाई. कांग्रेस के कद्दावर नेता ने बयान दिया कि छोटू भोयर भाजपा के नगरसेवकों को तोड़ने में विफल रहे हैं अतः पार्टी उन्हें अपना अधिकृत उम्मेदवार मानने से इंकार करती है. इस तरह डॉक्टर छोटू भोयर अपनी बगावत के साथ एकाकी पड़ गए और चुनाव के दिन जाकर खुद को अपना वोट दे आए. क्या कहा जाए, किसने किया छोटू भोयर के साथ खेला…, कांग्रेस ने, भाजपा ने कि उन्होंने खुद ही अपना खेला...
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दुःख है कि यह अंतिम अंक है, आपके अंदर सृजनात्मक भूख बहुत है किंतु ज़िंदगी की दूसरी उलझनें आपको सम्भलने नहीं दे रही हैं। पहले आप ठीक हो लें फिर हम इस पत्रिका के प्रिंट भी देखेंगे।
ReplyDeleteशुक्रिया सर. आपकी दुआएं साथ हैं. आमीन. जरुर ऐसा ही हो.
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