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Showing posts from February, 2020

दंग, दगा, दंगा, दाग

(महाराष्ट्र के प्रतिष्ठित दैनिक लोकमत समाचार में पिछले तीन हफ्ते में प्रकाशित स्तंभ 'मिशन मन' के तीनों आलेख एक साथ...) हर बार के दंगे में हम दंग होते हैं कि अरे! यह क्या हो गया या यह क्या हो रहा है! हम दंग होने के असल कारणों को खोजने की बजाय दगाबाज खोजना शुरु करते हैं. हम खुश होते हैं अपने बीच में से ही दगाबाज खोजकर उसे चिन्हित करते हुए. चिन्हित करने की यह प्रक्रिया हर बार हमारे लिए दाग साबित होती है लेकिन हम अपने अतीत से कुछ नहीं सीखते. क्या दंगा वही है जो किन्हीं दो समुदाय या गुटों के बीच होता है? क्या हम स्वयं दंगा नहीं जीते? क्या रात-दिन हम किसी न किसी को परास्त या नेस्तनाबूद करने के कुचक्र में संलिप्त नहीं हैं? किसी न किसी को सबक सिखाने की मानसिकता क्या हमारे भीतर रात-दिन नहीं पनपती रहती है? किसी न किसी को हर क्षण दगाबाज साबित करने की जुगत में क्या हम नहीं लगे रहते? दरअसल हमें सही तरीके से दंग होना नहीं आता, नहीं तो हम कभी दंगा नहीं करते. दंग होना नहीं आता तो दंगा करते हैं और फिर दगाबाज ढूँढ़कर खुद पर दाग लगाते-मिटाते मर-खप जाते हैं. अपने भीतर उभरती-पनप

मिशन मन : मुकम्मल मानव-दृष्टि का एक विनम्र अभियान

लोकमत समाचार में प्रकाशित स्तम्भ की डिजिटल छवि  पुष्पेन्द्र फाल्गुन / नागपुर   महाराष्ट्र से प्रकाशित प्रमुख हिन्दी दैनिक 'लोकमत समाचार' के सम्पादकीय पृष्ठ पर साप्ताहिक स्वरुप में 'मिशन मन' नामक स्तम्भ प्रकाशित होता है. विगत साढ़े तीन वर्ष से प्रकाशित इस स्तम्भ को गत सोलह हफ्ते से मनुष्य की दृष्टि और उसके नतीजे में बनने वाले 'मन' पर केन्द्रित रखा है मैंने. यह क्रम हालाँकि आगे भी जारी रहेगा लेकिन फ़िलहाल उन सोलह हफ्ते के सोलह शीर्षकों को आप यहाँ क्रमवार पढ़ सकते हैं. तस्वीर / पुष्पेन्द्र फाल्गुन  खुदी-बेखुदी जीने के लिए होना जरुरी है और होने के लिए खुदी को जानना अनिवार्य. खुदी यानी भीतर की वह सत्ता जो हमें चलायमान-गतिमान रखती है. खुदी यानी मैं. ज़माने में अक्सर खुद को मैं मान लिया या समझ लिया जाता है, लेकिन कोई खुद बिना खुदी के कुछ नहीं. हमारा यह शरीर न जाने कितने अवयवों के संगठित और समग्र क्रिया-प्रक्रिया से कर्तव्यदक्ष बना रहता है. इन अवयवों का पृथक स्वरुप में न कोई महत्व है और न ही उपयोग. परस्पर निर्भर रहकर ही ये अवयव अपना स्वारथ सिद्ध क