(महाराष्ट्र के प्रतिष्ठित दैनिक लोकमत समाचार में पिछले तीन हफ्ते में प्रकाशित स्तंभ 'मिशन मन' के तीनों आलेख एक साथ...) हर बार के दंगे में हम दंग होते हैं कि अरे! यह क्या हो गया या यह क्या हो रहा है! हम दंग होने के असल कारणों को खोजने की बजाय दगाबाज खोजना शुरु करते हैं. हम खुश होते हैं अपने बीच में से ही दगाबाज खोजकर उसे चिन्हित करते हुए. चिन्हित करने की यह प्रक्रिया हर बार हमारे लिए दाग साबित होती है लेकिन हम अपने अतीत से कुछ नहीं सीखते. क्या दंगा वही है जो किन्हीं दो समुदाय या गुटों के बीच होता है? क्या हम स्वयं दंगा नहीं जीते? क्या रात-दिन हम किसी न किसी को परास्त या नेस्तनाबूद करने के कुचक्र में संलिप्त नहीं हैं? किसी न किसी को सबक सिखाने की मानसिकता क्या हमारे भीतर रात-दिन नहीं पनपती रहती है? किसी न किसी को हर क्षण दगाबाज साबित करने की जुगत में क्या हम नहीं लगे रहते? दरअसल हमें सही तरीके से दंग होना नहीं आता, नहीं तो हम कभी दंगा नहीं करते. दंग होना नहीं आता तो दंगा करते हैं और फिर दगाबाज ढूँढ़कर खुद पर दाग लगाते-मिटाते मर-खप जाते हैं. अपने भीतर उभरती-पनप