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दंग, दगा, दंगा, दाग



(महाराष्ट्र के प्रतिष्ठित दैनिक लोकमत समाचार में पिछले तीन हफ्ते में प्रकाशित स्तंभ 'मिशन मन' के तीनों आलेख एक साथ...)



हर बार के दंगे में हम दंग होते हैं कि अरे! यह क्या हो गया या यह क्या हो रहा है! हम दंग होने के असल कारणों को खोजने की बजाय दगाबाज खोजना शुरु करते हैं. हम खुश होते हैं अपने बीच में से ही दगाबाज खोजकर उसे चिन्हित करते हुए. चिन्हित करने की यह प्रक्रिया हर बार हमारे लिए दाग साबित होती है लेकिन हम अपने अतीत से कुछ नहीं सीखते.
क्या दंगा वही है जो किन्हीं दो समुदाय या गुटों के बीच होता है? क्या हम स्वयं दंगा नहीं जीते? क्या रात-दिन हम किसी न किसी को परास्त या नेस्तनाबूद करने के कुचक्र में संलिप्त नहीं हैं? किसी न किसी को सबक सिखाने की मानसिकता क्या हमारे भीतर रात-दिन नहीं पनपती रहती है? किसी न किसी को हर क्षण दगाबाज साबित करने की जुगत में क्या हम नहीं लगे रहते?
दरअसल हमें सही तरीके से दंग होना नहीं आता, नहीं तो हम कभी दंगा नहीं करते. दंग होना नहीं आता तो दंगा करते हैं और फिर दगाबाज ढूँढ़कर खुद पर दाग लगाते-मिटाते मर-खप जाते हैं.
अपने भीतर उभरती-पनपती तमाम अनैतिकताओं, बदनीयती और बेइमानियों को तटस्थ होकर आँकने पर हम खुद को लगातार दंग कर सकते हैं. इस तरीके से दंग होने पर न हमसे दंगा होगा न हम अपने आलावा किसी और को कभी दगाबाज पाएँगे न ही अपने किरदार को कभी दागदार बनाने की भूमिका स्वीकार करेंगे.
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धर्म और पहचान  

अब समय आ गया है कि हम अपने समाज को सचमुच का इंसानी समाज बनाएं. आज भी हमारे समाज में व्यक्ति की पहचान उसके नाम, धर्म, जाति के आधार पर ही निर्भर है. धर्म और जाति मनुष्य के जीवन में बच्चे के जन्म के साथ ही घुसते हैं और मरने के बाद तक उसके अस्तित्व को जकड़े रहते हैं. हम पहले बच्चों को धार्मिक और जातिवादी बनाते हैं और फिर खुद को प्रगतिशील साबित करने के लिए उन्हें इंसानियत का पाठ पढ़ाते है और नसीहतों की फरमाइश से भर देते हैं.
क्या ऐसी व्यवस्था की दरकार आपको नहीं प्रतीत होती है कि हमें अपने देश में जन्म लेने वाले बच्चों को जाति-धर्म के हर कब्जे से मुक्त रखने के लिए कानून बनाना चाहिए?
क्या हमें पहले अपने बच्चों को जिम्मेदार और कर्तव्यदक्ष नागरिक बनाने के बारे में नहीं सक्रिय होना चाहिए?
क्या हमें अपने बच्चों के लिए इंसानियत और इंसानी फर्ज को अनिवार्य नहीं बना देना चाहिए?
यदि धर्म के बिना मरना असंभव हो तो कम से कम 25 साल की उम्र के बाद स्वेच्छा से धर्म चुनने की आजादी हमें अपनी नयी पीढ़ी को देना चाहिए.
नहीं तो जिस तरह के सड़े-गले समाज का हम संवहन कर रहे हैं, हमारे नौनिहाल भी हमारी तरह पंगु और बिगाड़ वाली मानसिकता के ही संवाहक बनकर रह जाएंगे...
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न्याय, सत्य और प्रयोग

सभी को न्याय चाहिए लेकिन क्या सभी न्यायसंगत तरीके से जीते हैं? सभी को सत्य चाहिए लेकिन क्या सभी सत्य के साथ जीते हैं. न्याय और सत्य जीवन के प्रत्येक श्वास में उतारने से सार्थक होते हैं, चाहने, मांगने या पाने की होड़-दौड़ से नहीं.
किसी ने सवाल किया है कि न्याय और सत्य के साथ जीवन जिया कैसे जाए? वह भी आज के बाजारवादी एवं उपभोक्तावादी दौर में?
दरअसल इस तरह के सवाल असत्य और अन्याय को तरजीह देने वाले ही उठाते हैं. इस तरह के सवाल उठाने वालों के लिए सत्य और न्याय नारे, घोषणा और जयकारे की चीज भर हैं.
लगातार प्रयोग से न्याय और सत्य जीवन में उतरता है. साहस और संघर्ष से ही न्याय और सत्य का उत्कर्ष होता है.
न्याय क्या है? दूसरों के मानवीय हक और अधिकार को प्रभावित किए बिना जीवन यापन.
सत्य क्या है? विचार, कर्म और नीयत में सदा एक सम बने रहना तथा सतत यह भान में रखना कि हम जीव-जगत के एक हिस्सा मात्र हैं, ऐसा हिस्सा जिसे अपनी हिस्सेदारी को समग्रता तक न्यायसंगत तरीके से पहुँचाकर ही दम लेना है.

(लेखक पुष्पेन्द्र फाल्गुन इस वेबसाइट-ब्लॉगसाइट फाल्गुनविश्व.कॉम तथा पत्रिका फाल्गुनविश्व का प्रकाशन-संपादन करते हैं. नागपुर में रहते हैं और उनसे 9372727259 पर मोबाइल से और thefalgunvishwa@gmail.com पर मेल से संवाद-संपर्क हो सकता है). 

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