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Showing posts from November, 2020

बदला!

बदलने से कुछ नहीं बदलता. बदले से तो बिलकुल नहीं. लेकिन यह आदत हमें पूर्वजों से डीएनए में मिली हुई है. मनुष्य बने रहने के लिए बहुत से बदलाव के बावजूद डीएनए का यथावत रहना भी जरुरी होता है. हम मनुष्य होने की राह पर चलते-चलते अक्सर दिग्भ्रमित हो जाने वाली प्रजाति हैं. आदत आड़े आ जाती है. ‘बदलना है नहीं तो बदला लेना है.’ यात्री के दिमाग के इस फितूर का क्या कीजिए. हाँ एक कीमिया है जिससे बदला तक बदल जाता है और वह कीमिया है मुस्कुराहट. मनुष्य होने के लिए मुस्कराहट एक जरुरी असबाब है, जिसे हमें अपने होठों पर ओढ़ना-बिछाना होता है. लेकिन समय की मार इस असबाब को कई बार इतना भारी बना देती है कि इसका होना बोझ बन जाता है तो कई बार इसका होना संवाहक के प्रति संदेह और संशय की उत्पत्ति का कारक. हालाँकि यह भी सच है कि मुस्कुराते रहने से वक़्त बदल जाता है, उनके लिए भी कि जिनके लिए वक़्त खुद ही कोई पैमाना नहीं बना पाया. तमाम प्रतिकूलताओं और संकटों के बावजूद होठों पर मुस्कुराहट का ओढ़ना-बिछाना चलता रहे तो वक़्त तस्लीम करने पर बाध्य हो उठता है और अपने वजूद पर यकीन का कुदरती नुस्खा हम पर नमूदार होने लगता है. मुस्कुरान

दुरुपयोग

एक व्यक्ति अपने जीवन में सबसे ज्यादा दुरुपयोग ‘स्वाभिमान’ का करता है. स्वाभिमानी होने की बजाय लोग ‘स्वाभिमान’ का ढोल पीटकर ही खुश हो लिया करते हैं. यह एक तरह से उनकी परपीड़क प्रवृति का प्रगटन ही हैं, लेकिन ऐसे महानुभावों को इससे फर्क ही नहीं पड़ता. जिज्ञासा होती है कि जो अपने स्वाभिमान की इतनी दुहाई देते हैं, वे हर समय खुद को पीड़ित / शोषित दिखाने के लिए बेचैन और उतावले क्यों रहते हैं? स्वाभिमानी व्यक्ति अपने स्वाभिमान की रक्षा के साथ-साथ यह भी ख्याल रखेगा कि उसकी वजह से किसी और का स्वाभिमान न आहत हो. स्वाभिमान का ढोल पीटने वाले दूसरों के स्वाभिमान की न सिर्फ धज्जियाँ उड़ाते हैं बल्कि अपने करीबियों तक में मजाक का पात्र बनकर रह जाते हैं. स्वाभिमानी हर हाल, परिस्थिति में अपना स्वाभिमान बनाए / बचाए रखेगा. न खुद वह अपने स्वाभिमान से खेलेगा और न ही किसी और को खेलने देगा. लेकिन आजकल अपने और दूसरों के स्वाभिमान से खेलने वालों की होड़ आसानी से अपने चारों ओर देखी जा सकती है. अनुसंधानों के मुताबिक स्वाभिमान की दुहाई देने वाले लोग अक्सर या तो कायर होते हैं या फिर क्रूर. हिम्मती व्यक्ति या सहज /

परम्परा ज्ञापन

उजाले की दिशा से आवाज आयी, जो अँधेरे में हैं उन्हें दीये जलाना चाहिए.  ‘किसलिए?’, अँधेरे की तरफ से सवाल पूछा गया.  उजाले की तरफ से जवाब आया, ‘ताकि मालूम हो सके कि अँधेरे में कौन है, कौन अँधेरे से उबरना चाहता है?’ ‘इससे क्या होगा?’ अँधेरे की तरफ से प्रतिप्रश्न हुआ.  उजाले की तरफ से जवाब की बजाय बड़ी देर तक जब मौन बना रहा तो अँधेरे की तरफ से फिर आवाज उठी, ‘अँधेरे से चाहे जितनी ही रौशनी उठे, वहां उजाला नहीं होने पाता, जानते हो क्यों? क्योंकि अँधेरे में जब रौशनी होती है, रौशनी करने वाले को चिन्हित कर लिया जाता है, फिर उस रौशनी करने वाले को उजाला अपने साथ मिलाकर अपना विस्तार कर लेता है, लेकिन अँधेरा कभी नहीं छंटता है...’ ‘हम तुम्हारे आक्रोश को समझते हैं...’ उजाले की तरफ से कहा गया. ‘दिक्कत यही है कि अँधेरा, उजाले को अपना शत्रु समझता है, जबकि हम उजाले इस कोशिश में रहते हैं कि किस तरह से अँधेरे की अवधि समाप्त कर चहुँओर उजाला भर दे..., तुम ठीक कह रहे हो कि हम अँधेरे में उजाला करने वाले को चिन्हित कर लेते हैं और फिर उसे अपने साथ मिलाकर अपना विस्तार करते हैं..., लेकिन कभी सोचा है तुमने कि यह हम क