बदलने से कुछ नहीं बदलता. बदले से तो बिलकुल नहीं. लेकिन यह आदत हमें पूर्वजों से डीएनए में मिली हुई है. मनुष्य बने रहने के लिए बहुत से बदलाव के बावजूद डीएनए का यथावत रहना भी जरुरी होता है. हम मनुष्य होने की राह पर चलते-चलते अक्सर दिग्भ्रमित हो जाने वाली प्रजाति हैं. आदत आड़े आ जाती है. ‘बदलना है नहीं तो बदला लेना है.’ यात्री के दिमाग के इस फितूर का क्या कीजिए. हाँ एक कीमिया है जिससे बदला तक बदल जाता है और वह कीमिया है मुस्कुराहट.
मनुष्य होने के लिए मुस्कराहट एक जरुरी असबाब है, जिसे हमें अपने होठों पर ओढ़ना-बिछाना होता है. लेकिन समय की मार इस असबाब को कई बार इतना भारी बना देती है कि इसका होना बोझ बन जाता है तो कई बार इसका होना संवाहक के प्रति संदेह और संशय की उत्पत्ति का कारक. हालाँकि यह भी सच है कि मुस्कुराते रहने से वक़्त बदल जाता है, उनके लिए भी कि जिनके लिए वक़्त खुद ही कोई पैमाना नहीं बना पाया. तमाम प्रतिकूलताओं और संकटों के बावजूद होठों पर मुस्कुराहट का ओढ़ना-बिछाना चलता रहे तो वक़्त तस्लीम करने पर बाध्य हो उठता है और अपने वजूद पर यकीन का कुदरती नुस्खा हम पर नमूदार होने लगता है.
मुस्कुराने के लिए मस्तिष्क में नेक इरादों के साथ-साथ जिगर में हिम्मत भी उसी अनुपात होनी चाहिए. मुस्कुराना मतलब अनुमान की जद में मुंह घुसाना नहीं है. हालाँकि पूर्वाग्रह के दम पर कुछ लोग अनुमान लगाते हुए मुस्कुराहट की जद में घुसपैठ की कोशिश करते हैं, लेकिन ऐसे लोगों के गाल पर समय के वो-वो थपेड़े पड़ते हैं कि वे अपनी पूरी जिन्दगी अपने गाल सहलाने में ही बिता देते हैं. अनुभवों से इस दशा के बारे में बहुत से लोगों को ज्ञान हो जाया करता है लेकिन श्वान-दुम जैसे विशेषण भी तो ऐसे ही मनुष्यों के लिए बने हैं. वे अनुमान की जद में घुसपैठ करना नहीं छोड़ते.
दरअसल मुस्कुराना, मुक्ति की चाह में की गयी यात्रा है. इस मार्ग की यात्रा में खुद सफर करना पड़ता है, ये नहीं कि मुस्कुराहट की अर्जी लगाकर किसी पेड़ की छांह में सुस्ताने लगे. इस यात्रा में सर्वदा देते ही जाना है और पाने की कल्पना तक से बाज रहना होता है, नहीं तो कुछ नहीं बदलता बस बदला सुलगता रहता है मन के भीतर.
(पुष्पेन्द्र फाल्गुन लिखित यह सूक्ष्म-निबन्ध हिन्दी दैनिक 'लोकमत समाचार' में 27 नवम्बर 2020 को प्रकाशित).
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