पुष्पेन्द्र फाल्गुन / नागपुर
महाराष्ट्र से प्रकाशित प्रमुख हिन्दी दैनिक 'लोकमत समाचार' के सम्पादकीय पृष्ठ पर साप्ताहिक स्वरुप में 'मिशन मन' नामक स्तम्भ प्रकाशित होता है. विगत साढ़े तीन वर्ष से प्रकाशित इस स्तम्भ को गत सोलह हफ्ते से मनुष्य की दृष्टि और उसके नतीजे में बनने वाले 'मन' पर केन्द्रित रखा है मैंने. यह क्रम हालाँकि आगे भी जारी रहेगा लेकिन फ़िलहाल उन सोलह हफ्ते के सोलह शीर्षकों को आप यहाँ क्रमवार पढ़ सकते हैं.
तस्वीर / पुष्पेन्द्र फाल्गुन |
खुदी-बेखुदी
जीने के लिए होना जरुरी है और होने के लिए खुदी को जानना अनिवार्य.
खुदी यानी भीतर की वह सत्ता जो हमें
चलायमान-गतिमान रखती है. खुदी यानी मैं. ज़माने में अक्सर खुद को मैं मान लिया या
समझ लिया जाता है, लेकिन कोई खुद बिना खुदी के कुछ नहीं.
हमारा यह शरीर न जाने कितने अवयवों के
संगठित और समग्र क्रिया-प्रक्रिया से कर्तव्यदक्ष बना रहता है. इन अवयवों का पृथक
स्वरुप में न कोई महत्व है और न ही उपयोग. परस्पर निर्भर रहकर ही ये अवयव अपना
स्वारथ सिद्ध करते हैं और अपनी सार्थकता साबित करते रहते हैं. शरीर संतुलित तरीके
से गतिमान रहता है तो मनुष्य बुद्धि की पुष्टि के लिए प्रयत्नशील होता है. इस
प्रक्रिया में संवेदना और करुणा की सहभागिता से व्यक्ति में मेधा, प्रज्ञा, चेतना
के लोक आलोकित होते हैं. आलोकित होना ही दरअसल होने की सम्पूर्णता का परिणाम है.
इसी परिणाम को हम खुदी के नाम से संबोधित करते हैं.
इस खुदी के लिए खुद को मिटाना होता है.
ठीक उसी तरह जैसे अँधेरे को मिटाने पर हम उजाला पाते हैं. खुदी में आ गए और खुदी
को मिटाने लगे तो ऐसा होना नहीं है. उजाले को मिटाने पर अँधेरा पाया जा सकता ही.
खुद को मिटाकर खुदी में आ गए लेकिन खुदी को मिटाकर खुद को नहीं पाया जा सकता, न ही
खुद में आया जा सकता है. खुद को मिटाकर खुदी में आने की यात्रा एकतरफ़ा मार्ग है.
इस मार्ग से वापसी संभव नहीं. इस मार्ग पर रोमांच या किसी उपलब्धि के लिए यात्रा
नहीं हो सकती, इस मार्ग पर वह व्यक्ति यात्रा कतई न करे जिसे परिणाम चाहिए. इस
मार्ग का यात्री होने की अवसर उसे ही हासिल होता है जो स्वयं परिणाम हो जाने को
तत्पर हो.
दीये यानी जलते हुए दीपक मुझे खुदी के
सबसे जीवंत उदाहरण मालूम देते हैं. दीये से हमें उजाला नहीं मिलता, दीये में ही
उजाला है, दीये का मतलब ही उजाला है. दीये के जलने से अँधेरा नहीं मिटता. दीये के
जलने से मालूम होता है कि यहाँ के अँधेरे को मिटाने की गरज है. हमारे पूर्वजों ने
इन तीज-त्योहारों के जरिए जीवन और जीवन्तता के असंख्य पाठ सीखने की सहज सुविधाएँ
हमें दे रखी है. सीखने की इस अद्भुत कीमिया को समझिये और इस दीपावली से खुद को
खुदी में रुपांतरित करने लगिए. आइए मिलकर इस प्रयास में मुब्तिला होते हैं. पहला
कदम है खुद में खुदी की पहचान और उसके निर्मय की संभावना.
तस्वीर एवं ग्राफ़िक्स / पुष्पेन्द्र फाल्गुन |
प्रारब्ध
प्रकृति में सबके हिस्से का प्रारब्ध
तय है. लेकिन क्या हम प्रकृति की इस नियति को स्वीकार कर पाते हैं? विगत
कई शताब्दियों से हमने प्रकृति की नियति को धता बताकर अपनी नियति को प्रकृति का
प्रारब्ध बनाने का कुत्सित चक्र चला रखा है. जितना लम्बा और पुराना मनुष्य के लालच,
महत्वकांक्षा और युद्ध का इतिहास है, उतने ही
समय से मनुष्य ने प्रकृति द्वारा प्रदत्त प्रारब्ध पर अपनी नियति थोपने का
कार्यक्रम चला रखा है. आदिवासी जन आज भी प्रकृति के प्रारब्ध को अक्षुण्ण बनाए
रखने का जतन करते हैं. पूरी दुनिया के आदिवासी जन आपको यह संकल्प जीते हुए दिखाई
देते हैं. आदिवासी जन और गैर आदिवासी जन के बीच लालच और महत्वकांक्षा एक मोटी फर्क
रेखा बनाती है. लालच और महत्वकांक्षा ही हमें वृहत, व्यापक और
समग्र मानव समुदाय से काटकर विभिन्न जातियों, श्रेणियों और
धर्मों में वर्गीकृत करती है. अपनी लालच और महत्वाकांक्षा को जीने में ही आज का
मनुष्य उद्धृत है.
प्रकृति के प्रारब्ध को समझना और
तदनुसार अपनी नियति तय करना ही हमारा प्राथमिक दायित्व होना चाहिए. इस प्रक्रिया
को गतिमान करने के लिए उन सभी लोगों को अग्रसर होना चाहिए, जिन्हें
इसकी समझ है लेकिन अपनी लालची एवं महत्वकांक्षा वृत्ति में चक्कर लगाते हुए वे
पथभ्रष्ट हैं.
ग्राफिक्स / पुष्पेन्द्र फाल्गुन |
त्रि-आयामी सूत्र -1
क्या आप जानते हैं कि हमारे जीवन के त्रि-आयामी
सूत्र कौन से हैं? ये सूत्र हैं देखना, सुनना, समझना. हमारा समूचा जीवन इन्हीं
सूत्रों के जरिए वलय बनाने में बीतता है. आगामी कुछ हफ्ते हमलोग इन्हीं सूत्रों को
समझने और आत्मसात करने में व्यतीत करेंगे.
आज सुबह वाट्स एप पर एक करीबी मित्र ने
गलती और माफी के विषय में जानने की उत्सुकता दिखाई. हमारा जो पहला सूत्र है देखना,
उसी के आलोक में मित्र की जिज्ञासा शांत करते हैं. देखना और अपनी शर्तों पर देखना
बिल्कुल अलग-अलग प्रक्रिया है. अक्सर हम किसी भी बात, चीज, व्यक्ति, घटना यहाँ तक
कि स्वप्न भी अपनी ही शर्तों पर देखने की कोशिश करते हैं. जो है उसे वैसा ही नहीं
देखते बल्कि देखते समय हमारी आँखों पर मान्यताओं, सूचनाओं, आग्रहों, ज्ञान और
अपेक्षाओं का अदृश्य चश्मा चढ़ा होता है. जो जैसा है, उसे वैसा ही देखना आ जाए तभी
दरअसल हमें देखना आता है. इस प्रक्रिया में सबसे ज्यादा मजेदार वह चरण है जब आप जो
जैसा है उसे वैसा ही देख रहे हैं लेकिन आपको देखने वाला अभी भी उसी अदृश्य चश्मे
से आपको देख रहा है, जिससे उबरकर आपने देखना शुरु ही किया है...
इस प्रक्रिया में दोनों ओर से अपार और
लगातार गलतियों की संभावना बनती है, देखने में गलती हो रही है या देखते समय गलती
का आभास या एहसास हो रहा है मतलब जो देख रहा है अथवा जिसे देखा जा रहा है, उन
दोनों में से किसी एक ने अपनी दृष्टि पर से मान्यताओं, सूचनाओं, आग्रहों, ज्ञान और
अपेक्षाओं का अदृश्य चश्मा हटा लिया है. इस समय माफी एक औजार की तरह इंसानियत बचाने
के काम आता है और इस औजार के जरिये उस पक्ष का अदृश्य चश्मा भी सहजता से हट जाता
है, जिसे इस औजार के इस्तेमाल की जरुरत बाद में पड़ी.
डिजिटल रेखांकन / पुष्पेन्द्र फाल्गुन |
त्रि-आयामी सूत्र -2
हर तरह की मान्यता, आग्रह, ज्ञान,
अपेक्षा और सूचना से परे जाकर जो जैसा है, उसे वैसा ही देख पाना त्रि-आयामी सूत्र
का पहला चरण है और इसके विषय में पिछले सप्ताह हमने चर्चा की. इस हफ्ते दूसरे
सूत्र यानी सुनने के विषय में हम बात करेंगे.
कभी आपने सोचा है कि आप क्या सुनते
हैं? अभी सोचिए कि क्या सुनते हैं आप? क्या वही सुनते हैं जो सुना जाना चाहिए या
जो सुनना चाहते हैं उसे ही सुनते रहते हैं, सुनाते रहते हैं?
जो जैसा है, उसे वैसे ही देखने की
योग्यता पाने के बाद ही अनिवार्य सत्य सुनने की योग्यता पायी जा सकती है, तब तक तो
आपको वही सुनना है जो आपके परिजन, आपके रिश्तेदार, आपके शिक्षक, आपको चाहने वाले
और आपसे नफरत करने वाले, आपका इस्तेमाल करने वाले और आपको जो इस्तेमाल करते हैं,
वे सब जो सुनाते रहेंगे.
विद्यमान ध्वनि को उसके समस्त अर्थ के
साथ सुनना और उन अर्थ को अपनी स्वार्थी ध्वनियों से अनर्थ में न तब्दील होने देना
ही सच में सुनना है. सच देखने के बाद ही सच सुनना साकार हो पाता है. मेरी यह ध्वनि
कुछ पल्ले पड़ी? अगरचे पड़ी तो सच दिखाई देता है आपको.
डिजिटल रेखांकन / पुष्पेन्द्र फाल्गुन |
त्रि-आयामी सूत्र – 3
अस्तु, त्रि-आयामी सूत्र के तीसरे बीज सूत्र पर हम पहुँच गए हैं.
तीसरा बीज सूत्र है 'समझना.' पहला
सूत्र 'देखना', दूसरा सूत्र है 'सुनना' और तीसरा सूत्र है 'समझना.'
किस तरह समझना है?
जो देखा है और जिस देखे को सुना है, उसी को समझना है.
समझने की प्रक्रिया हमलोग सबसे ज्यादा नजरंदाज करते हैं. जो देखते हैं कई बार उसे
जस का तस सुन भी लेते हैं लेकिन समझते समय, समझने के तरीके
को लेकर संभ्रमित हो जाते हैं.
हर तरह की मान्यता, आग्रह, ज्ञान, अपेक्षा और सूचना से परे जाकर जो जैसा है,
उसे वैसा ही देख पाना त्रि-आयामी सूत्र का पहला चरण है, अतः आपने इस सूत्र को अंगीकार करते हुए जो जैसा है, वैसे
ही देखा, फिर त्रि-आयामी सूत्र के दूसरे चरण को स्वीकार करते
हुए देखे दृश्य की प्रत्येक ध्वनि को उन-उन ध्वनियों में निहित अर्थ के साथ सुना
आपने, बिना अपनी किसी ध्वनि को उनमें मिलाए.
अब बारी है उन ध्वनियों के सुने गए अर्थ को समझने की. समझते समय फिर से उस
दृश्य को आपको देखना है, इस बार देखते समय दृश्य को उलटे क्रम
में देखना है, मतलब कि उस दृश्य का जो सबसे अंतिम क्षण था,
उस क्षण से दृश्य को देखना शुरु करना है और पीछे की तरफ बढ़ते हुए
(रिवर्स ऑर्डर में) जो उस दृश्य का पहला क्षण था, वहाँ सबसे
अंत में पहुँचना है, जाहिर है इस बार का देखना स्मृति के
सहारे होगा क्योंकि वह घटित दृश्य तो कब का गुजर चुका है! तो इस तरह उलटे क्रम में
दृश्य को याद करना है और साथ में उन ध्वनियों को भी उलटे क्रम में ही जस का तस
सुनना है, इस तरह की प्रक्रिया से देखने और सुनने पर ही वह
दृश्य उसी तरह से समझ आएगा, जैसा वह घटित हुआ...
(इस स्तम्भ के अगले चरण से इन्हीं तीनों सूत्रों पर आधारित दृष्टान्तों की
प्रस्तुति होगी, जिससे इन सूत्रों को सटीक स्वरुप में आत्मसात किया जा
सकेगा).
डिजिटल रेखांकन / पुष्पेन्द्र फाल्गुन |
दृष्टान्त – १
दो लोगों को परस्पर हाथापाई करते देखकर
आप क्या करेंगे? इस हफ्ते एक सरकारी कार्यालय के परिसर में मैंने दो युवाओं को
हाथापाई करते देखा, यह भी देखा कि कुछ लोग दोनों भिड़े युवाओं को एक-दूसरे से
खींचकर अलग कर रहे थे लेकिन जितना ही उन दोनों को आपस में भिड़ने से, गुत्थमगुत्था
होने से रोका जाता, उन दोनों का तैश उतना ही बढ़ता जाता. मैं उसी जगह से गुजर रहा
था. वे दोनों युवा एक-दूसरे को गन्दी-गन्दी गाली बक रहे थे और एक-दूसरे को देख
लेने की धमकी दे रहे थे. मैं एकदम उस और बढ़ा और उन दोनों युवाओं की बाँह पकड़कर
एक-दूसरे पर धकेल दिया और फिर दोनों को परस्पर आपस में दबाने के लिए उनकी पीठ पर
जोर देने लगा, साथ ही मैं जोर-जोर से बोल रहा था, ‘लो देखो एक-दूसरे को, अच्छे से
देखना और बिना देखे एक-दूसरे को बिलकुल मत छोड़ना...’ एकदम से अपने साथ हुए ऐसे
व्यव्हार और फिर देख लेने की ऐसी हिदायत सुनकर वे दोनों सचमुच एक-दूसरे की तरफ
देखने लगे, मेरा बोलना ख़त्म हुआ और उन दोनों ने शर्म से सिर झुका लिया, मैंने
दोनों की हथेली पकड़कर एक-दूसरे से मिलाते हुए कहा, ‘दोनों हाथ मिलाओ, हाथ मिलाते
हुए एक-दूसरे को महसूस करो, एक-दूसरे का हाथ देखो, हाथ मिलाना महसूस करो, जो महसूस
करो, उसे देखने की कोशिश करो... देखना तुम्हें कभी एक-दूसरे को तैश में देखने की
जरुरत नहीं पड़ेगी...’
मैं इतना बोलकर आगे बढ़ा ही था कि
तमाशबीनों में से किसी ने कहा, ‘पागल है क्या?’ मैंने पीछे मुड़कर कहा, ‘अरे भाई
जिसने भी सवाल पूछा है मुझसे पूछते आप, क्योंकि सवाल मेरे बारे में है और इसका
जवाब मेरे ही पास है और जवाब है हाँ, तो क्या आपको मेरा पागलपन देखना है?’
डिजिटल रेखांकन / पुष्पेन्द्र फाल्गुन |
न्याय और सत्य
हैदराबाद पुलिस द्वारा भागने की कोशिश
कर रहे दुष्कर्म और हत्या के चार आरोपियों के एनकाउंटर की खबर से देश में फिर से
एकबार न्याय बनाम सत्य की बहस मुखर हो उठी है. देश के आमजन पुलिस के कर्म को
न्यायसंगत करार दे रहे हैं लेकिन बुद्धिजीवी और उच्चकोटि के मानवाधिकार कार्यकर्ता
इसे पुलिस द्वारा मानवाधिकारों के हनन के एक और मामले की ही तरह देख रहे हैं.
एक कर्तव्यपरायण युवती की समस्त
आकांक्षाएं एवं जिन्दगी बलात्कारी मानसिकता के युवाओं द्वारा दबोचकर ख़त्म कर दी
गयीं. कानूनन इसे आपराधिक कृत्य माना गया. कानूनी प्रक्रिया के जरिए आरोप और अपराध
की परिभाषाओं में समूचे घटनाक्रम को देखने की कार्रवाई शुरु हुई. ऐसा हर बलात्कार
के बाद होता है. इधर कानून सख्त किए जाने के बाद बलात्कारी दुष्कर्म करने के बाद
हत्या भी करने लगे, इससे उनके खिलाफ बनने वाला मुकदमा
कुछ कमजोर तो पड़ता ही है.
दुष्कर्म करने वाले, किसी की जिन्दगी के
साथ क्रूरता करने वाले जिन्दा रहने के अधिकारी हो सकते हैं या नहीं? बहस इस विषय
पर भी हो रही है, इस विषय पर भी हो रही है कि आखिर एक मासूम और नादान बच्चा कैसे
एक क्रूरकर्मा अथवा निर्दयी व्यक्ति में तब्दील होता है? मुझे लगता है कि विचार और
चिंतन के केन्द्र में यह होना चाहिए कि आखिर ऐसा क्या और क्यों होता है हमारे समाज
में कि सत्य के लिए जीने और जद्दोजहद करने की बजाय यह समाज न्याय-अन्याय के खेमे
में विभाजित होकर सतत सत्य की बलि को एक प्रक्रिया बना लेता है? सत्य के बलिदान के
बिन्दु को चिन्हित करने पर ही सत्य को न्याय की कीमत बनने से बचाया जा सकेगा.
प्रतीकात्मक तस्वीर |
फर्ज और जज्बात
तेज भूख लगी हो और खाने का कुछ सामान
सामने आ जाए तो ऐसे कितने लोग हैं जो अपनी भूख मिटाने को उतावले हुए बिना यह
जानने-समझने लगते हैं कि सामने आया हुआ खाना दरअसल उनकी मेहनत और परिश्रम से आया
है या नहीं और उनके हक़ का है या नहीं. भूख लगने पर भूख मिटाने के लिए टूट पड़ने की
प्रवृति हमारे आज के समाज का फैशन है. भूख महसूस करना एक जज्बात है, एक भावना,
विचार. लेकिन, उस भूख को शांत करने के लिए मेहनत और हक़ के रास्ते का अख्तियार ही
फर्ज है, दायित्व है, कर्तव्य है.
जरा सा सोचेंगे तो पाएँगे कि हम सब लोग
आजकल बेहद जज्बाती हैं. कोई भी हमारे जज्बातों को उकसा देता है, ऐसा लगता है कि हम
सब जज्बातों के पुलिंदे में लिपटे हुए हैं कि कोई भी हमारे जज्बातों की
चिमटी-चिकोटी लेकर हमें मनुष्य से जानवर में तब्दील कर सकता है. जज्बात सिर्फ फर्ज
से ही जब्त हो सकते हैं. जज्बातों को अगर जब्त करने की कोशिश से मनुष्य तौबा करने
लगे तो उसमें और पशु में क्या अंतर?
अन्य जीवों के बनिस्बत मनुष्य को इसलिए
बेहतर जीव माना गया कि उसमें विचार करने और अपने विचारों पर अमल करने की क्षमता
होती है. मैं इस सूत्र में यह जोड़ना चाहता हूँ कि मनुष्य में ही अपने जज्बातों को
जब्त करने और फर्ज के जरिये विचारों में रुपांतरित करने की नैसर्गिक प्रतिभा होती
है. लेकिन, निर्देश, आदेश, अनुशासन और सीखों से मनुष्य की यह नैसर्गिक प्रतिभा या
तो क्षीण हो जाती है या क्षीज जाती है. जन्म देने वाले अथवा लालन-पालन करने वाले
यदि बच्चे को सिर्फ यह समझा पाए कि मन में जो उत्पन्न होते हैं वही जज्बात हैं और
मन की उन भावनाओं को जस का तस दूसरों पर या समाज में उड़ेल देने की बजाय हम यह
सोचें कि ऐसे ही जज्बात कोई हम पर, हमारे परिजनों, हितैषियों, मित्रों, शुभचिंतकों
पर या उनमें से किसी पर भी जिन्हें हम बहुत मानते हैं और जिनसे बहुत स्नेह रखते
हैं, उन पर थोप दे या उड़ेल दे तो हमें
क्या यह मंजूर होगा?
इस सवाल के जवाब में ही जज्बात से फर्ज
तक की और जीवित रहने वाले हाड़-माँस के लोथड़े से एक मनुष्य होने तक की हमारी यात्रा
की पुष्टि हो पाती है.
आत्महत्या पूर्व रवि रंगारी द्वारा लिखे गए पत्र की फोटोकॉपी |
मन नम : मानना नहीं जीना
रवि ने बीते मंगलवार आत्महत्या कर ली.
वह इस स्तम्भ का नियमित पाठक था. अतीत में भी अनेक बार आत्महत्या के प्रयास कर
चुका था. मेरी किताब ‘ये मन नम है’ पढ़ने के बाद उसने शराब से तौबा किया था. उस समय
मुझे लगा था कि वह अपनी भीतर के निराशा से उबरकर जरुर साकारात्मक जीवन जीने के लिए
खुद को तैयार करेगा. लेकिन उसने अपनी खुदी को साकार करने के लिए खुद को औरों पर
निर्भर बना दिया. यहीं से उसके आत्मसंघर्ष का मार्ग चूक गया. दूसरों पर निर्भर
होकर आखिर खुदी को कोई कैसे साकार कर पाता?
रवि ने सुसाइड नोट में लिखा ये मन नम
है. रवि इस बात से आहत था कि अलग रहने वाली पत्नी ने बेटी को उससे बात करने से मना
कर रखा था. रवि जब भी बेटी से बात करता, उसे लगता कि बेटी को जरुर घर में माँ से
डांट पड़ती होगी. डांट पड़ती ही थी, इसका पुष्टि बेटी ने कभी भी बातों में उससे नहीं
की थी, लेकिन उसे अपनी मान्यता सही लगती थी और देखिये कि उसने अंततः अपने सुसाइड
में स्वीकार किया कि उसका मन नम हो सकता था लेकिन उसने जानबूझकर होने नहीं दिया.
मन का नम होना एक लेखकीय मुहावरा ही
रहा जाएगा यदि जीवन को इसके साकार से वंचित रखा जाएगा. मानने से नहीं जीने से ही
ये मन नम होता है. बोलने, मानने और जीने का अंतर ही वास्तव में रवि ने अपने सुसाइड
नोट में व्यक्त किया है. उसने यही स्पष्ट किया कि जिस तत्व को वह बार-बार दोहराता
रहा और मानता रहा, काश उसे वह जीवन में उतार लेता तो प्रेम उसके जीवन का हिस्सा हो
जाता और जिस अकेलेपन की टीस में उसे जान देनी पड़ी है, वह न देनी पड़ती. रवि ने मान्यताओं
से अपने विद्रोह को अपने इस अंतिम वक्तव्य में मुखर किया है. मुझे लगता है कि रवि
ने इस स्तम्भ के लेखक और पाठकों को चुनौती दी है कि मेरी तरह लिखे हुए को सिर्फ
पढ़कर खुश होते रहेंगे या इन्हें जीवन में उतारने के कुछ प्रयास भी करेंगे. मैंने
रवि की चुनौती को कसौटी की तरह लिया है. आपने?
डिजिटल रेखांकन / पुष्पेन्द्र फाल्गुन |
समझदारी
मित्र का फोन आया कि उसके कोचिंग कक्षा
का एक विद्यार्थी बेहद तनावग्रस्त है और पिछले दो दिन से उस विद्यार्थी के परिजन
बहुत परेशान है. विद्यार्थी ने हाथ की नाड़ियों को काटकर खुदकुशी की कोशिश भी की.
जिस वक़्त फोन आया उस समय रात के दो बज रहे थे. अगली सुबह मैं मित्र के साथ उस
विद्यार्थी के घर गया. कुछ देर तक उस किशोरवय से बात करने के बाद मैं उसे समझा
पाया था कि उसका जीवन और उसका तनावरहित रहना दरअसल कितने ही लोगों के चेहरे पर
राहत और खुशी उत्पन्न करने का कारण बनेगा. वह किशोर मेरे साथ कुछ और वक़्त बिताने
के लिए तैयार हो गया. तीन सप्ताह तक बिला नागा वह किशोर मेरे पास आता रहा और अंततः
वह उस द्वंद्व से उबर पाया कि जिसके चलते वह तनावग्रस्त होकर अवसाद में चला गया
था. करीब चार महीने तक मेरी सालाहियत में रहने के बाद वह किशोर सामान्य जीवन धारा
में लौट आया.
इस घटनाक्रम को चार साल बीत गए. एक रात
मैं दफ्तर से घर लौट रहा था मुख्य सड़क तक ट्रक से आया था और वहाँ से भीतरी हिस्से
में बसे कॉलोनी के घर तक करीब चार किलोमीटर पैदल जाना था. मुख्य सड़क से लगकर
कॉलोनी के अस्पताल की इमारत थी, उसके बाद करीब आधे किलोमीटर तक टीलानुमा रास्ता
था, रात के वक़्त वहां घुप अँधेरा होता था. मैं उस अँधेरे हिस्से से गुजर रहा था तो
सिर पर बड़ी जोर से कुछ गिरा. मैं अकबका गया. बदहवास मैं टीले के पार निकलने के लिए
जोर से भाग रहा था, पीछे से कुछ लोगों के दौड़ने का भास हो रहा था. थोड़ी ही दूर पर
चर्च था और वहां खम्भे पर हलोजन लाइट की रौशनी में मैं रुक गया. मेरे पीछे दौड़ने
वाले भी रुक गए थे. मैंने देखा वे तीन लोग थे. रौशनी में आने पर उनके चेहरे साफ
दिखाई दे रहे थे. तीनों को अच्छी तरह पहचानता था. उनमें से एक नौजवान वह था, जिसे
किशोरावस्था में मैंने तनाव और अवसाद से उबरने में मदद की थी. उस नौजवान ने भी
मुझे पहचान लिया था लेकिन उसके चेहरे पर कोई भी ऐसा भाव नजर नहीं आ रहा था जिससे
उसे या उसके साथियों को जरा भी ग्लानि या पश्चाताप हो रहा हो. मुझे उन युवाओं की
इस बेदिली से हैरत हुई, मैंने पूछा, ‘पत्थर क्यों फेंक रहे थे, मेरा सिर तो फूटा
ही, किसी और का भी तो फूट सकता था? मेरी सालाहियत में रहे नौजवान ने हँसते हुए
कहा, ‘आपने ही तो सिखाया है, डर को जीतना चाहिए...’ मेरी हैरत और बढ़ गयी, मेरे
सवाल से उसने मेरी हैरत को भाँप लिया था और ठहाका लगाकर हँसने लगा, मैंने पूछा था,
‘दूसरों को डराकर अपने डर को जीता जा सकता है!’
प्रतीकात्मक तस्वीर / साभार गूगल इमेजेस |
न्याय, प्रेम और हम
न्याय और सत्य का सीधा सम्बंध होता है.
कई बार लेकिन न्याय और प्रेम का सीधा सम्बंध नहीं स्थापित होने पाता. इस
असम्बद्धता से प्रेम और सत्य का सम्बंध भी तादात्म्यता में रुपांतरित होने से
वंचित रह जाता है. ‘सहन’ इसी अवसर पर अपने समूचे अर्थ में जीवन के लिए अपरिहार्य
हो उठता है. ‘सह’ में एकाकीपन का तिरोहण हो जाता है. सहने में अहंकार किंचित भी
विशेषण नहीं बन पाता है. सहने से ही ‘मैं’ दरअसल ‘मय’ में रुपांतरित होता है और
उसकी ध्वनि ‘हम’ की शक्ल में गूँजने लगती है. हम की अनुगूँज जैसे-जैसे महती होते
जाती है, हम न्याय की तरफ अग्रसर होने लगते हैं और सत्य से तब हमारा साक्षात्कार
अकेले नहीं समग्र सहयात्रियों का होता है. सहने से ‘मय’ होते हुए हम जब ‘मह’ होते जाते
हैं तभी न्याय और सत्य के धारण का अधिकार हमें हासिल होता है. इस पूरी प्रक्रिया
में कहीं भी विराम, अल्पविराम, पड़ाव या मुकाम नहीं है, बस यात्रा ही यात्रा है.
पहुँचना कहीं नहीं है, बस चलते जाना है. यात्रा कठिन नहीं, यात्री होना कठिन है
क्योंकि यात्री होने पर ‘सह’ और ‘मह’ की सायास अनवरत पुनरावृति ही जीवन का एकमात्र
कर्तव्य बन जाती है. आप यात्री नहीं होना चाहेंगे न?
डिजिटल रेखांकन / पुष्पेन्द्र फाल्गुन |
चार बातें
जिस विषय पर आपका नजरिया बन गया है, उस विषय पर दूसरों का नजरिया क्यों टटोलते हो? क्या
अपने नजरिये पर भरोसा नहीं है? क्यों चाहते हो कि सबलोग
वही देखें, जो आप देख रहे हैं! आपका देखना, आपका देखना है, देखने पर यदि आपको लगता है कि
कुछ गलत है तो बेशक उस गलत का विरोध कीजिए, उस गलत के
खिलाफ आवाज बुलंद कीजिए, लेकिन यह करने की बजाय यह
ढूँढ़ने लगें आप कि और कौन-कौन गलत को गलत बोल रहा है, कौन-कौन
नहीं, तो माफ़ कीजिएगा, आपको
गलत को गलत कहने में डर लग रहा है. सही को सही कहने का साहस आप कैसे जुटाएंगे?
अँधेरे की स्मृतियाँ हमारे मन को
प्रखरता के साथ अधिक काल तक घेरे रहती हैं. जरुरी है कि हम अँधेरे की इन स्मृतियों
को उजाले की ताजा बयारों में रुपांतरित करते जाएं. अँधेरे को जलाकर उजाले में
बदलने से ही मनुष्य का मन उज्ज्वल होता चलता है.
होता है और नहीं होता है के बीच एक
प्रक्रिया होती है. इस प्रक्रिया को समझे-जाने बिना या तो होता है या फिर नहीं
होता की तोतारटंत लगाने वालों से विवेक सम्मत प्रतिक्रियाओं की उम्मीद बेमानी है.
न्याय का औजार है सत्य. न अनुभव तक
सीमित रखने की चीज है सत्य और न ही बता-बताकर
दूसरों को उबाने की. जहाँ अन्याय है वहाँ और चाहे जो हो सत्य नहीं है. जहाँ सत्य
नहीं, वहाँ मनुष्यता नहीं. मनुष्यता नहीं है तो फिर
मनुष्य वहाँ कैसे होंगे?
भर्त्सना कर-करके आप मर जाइए, जो अन्याय कर रहे हैं उन्हें न भर्त्सना समझ आती है, न शर्मिंदगी. हाँ उनमें अगर न्याय के लिए लेशमात्र भी इच्छा किसी कोने में दबी हुई हो तो वहाँ से भी विद्रोह की कोई आवाज आ सकती है... मुझे तो सुनाई नहीं देती... आपको?
भर्त्सना कर-करके आप मर जाइए, जो अन्याय कर रहे हैं उन्हें न भर्त्सना समझ आती है, न शर्मिंदगी. हाँ उनमें अगर न्याय के लिए लेशमात्र भी इच्छा किसी कोने में दबी हुई हो तो वहाँ से भी विद्रोह की कोई आवाज आ सकती है... मुझे तो सुनाई नहीं देती... आपको?
प्रतीकात्मक तस्वीर / साभार रिदिसी |
ऋण-अनुबंध
धनाभाव
और कर्ज का जैसे चोली-दामन का साथ हो गया है आज के युग में. अपनी निजता में रहते
हुए भी सार्वजानिक जीवन-अनुशासन के अनुसार जीवन संचालित करना आज के इस दौर में
निपट कष्टप्रद और दुखदायी प्रक्रिया है, लगता है जैसे इस तरह के जीवन जीने वालों
के अस्तित्व में ही काँटे उग आए हों कि हर कोई इनसे दूरी बनाए रखने में ही अपनी
बेहतरी समझता है. लेकिन समझने भर से बेहतरी हो जाती तो क्या बात होती.
प्राच्य
भारतीय संस्कृति के जिस काल में भी सह-जीवन की अवधारणा फलीभूत हुई थी, उसी दौर को
हम अपनी उस संस्कृति का स्वर्णिम काल कह सकते हैं, उस काल के बाद और पहले तो जैसे बस
कतरों में जीवन बिताने को ही जिन्दा रहना मान लिया गया है. क्या हम सह-जीवन के उस
स्वर्णिम दौर को पुनश्च नहीं प्राप्त कर सकते?
हालाँकि
विपरीत और प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझने की शक्ति व क्षमता बनाए रखने अथवा बढ़ाने
के लिए ही मेरे जीवन में ऋण का प्रादुर्भाव हुआ लेकिन क्रमशः समझ आया कि हम सभी का
जीवन तो आखिर एक ऋण ही है. धनाभाव में धन का कर्ज लेकर हम चुका सकते हैं लेकिन यह
जो जीवन ही हमें एक ऋण की तरह मिला है, इससे कैसे उऋण होंगे? हमारी संस्कृति में
इसीलिए ऋण और उऋण की चर्चा बारम्बार आती है. सदा से कहा जाता रहा है कि माँ, पिता और
गुरु के ऋण से कभी मुक्त नहीं हुआ जा सकता. इस सूत्र को मैं इस तरह समझ पाया कि
भौतिक देहधारी जिस माँ ने अपनी कोख में नौ महीने रखकर इस दुनिया में मुझे अपना
वजूद बनाने के लिए कायम किया, उस माँ की ही तरह इस धरती पर न जाने कितनी ही देह और
कितने ही जीव, अपना वजूद बनाए रखने में सतत मेरे मददगार रहते हैं. अपनी भौतिक माँ
की ही तरह इन समस्त मातृवत जीवों से क्या मैं कभी भी उऋण हो सकता हूँ? जिस तरह
पिता मेरा लालन-पालन और भरण-पोषण करते हुए मुझे दूसरों के लालन-पालन और भरण-पोषण
के लायक बनाते हैं, क्या मैं उस पिता होने की प्रक्रिया से खुद को विलग कर सकता
हूँ? यदि नहीं तो फिर मैं पिता के ऋण से उऋण होने के बारे में कैसे सोच सकता हूँ?
सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय, करुणा-क्रूरता, संवेदना-संकीर्णता, विवेक-स्वार्थ के
अंतर को स्पष्ट कर मुझे जिन्होंने जीवन यात्रा के लिए गतिमान किया, उन गुरु की तरह
क्या प्रकृति के कण-कण से मुझे सतत यही सीख और प्रेरणा नहीं मिलती है? तो क्या मैं
उस प्रकृति के ऋण से कभी उऋण हो सकता हूँ?
माँ,
पिता और गुरु के ऋण से उऋण होने के चातुर्य-बोध से खुद को सतत विलक्षण रखने की
चेतना से ही सह-जीवन पुनश्च साकार हो सकता है, क्या हम मिलकर इसे साकार कर सकते
हैं?
तस्वीर / पुष्पेन्द्र फाल्गुन |
आँसू का मतलब
एक
युवा कवि ने कविता लिखी कि गुब्बारे से खेल रही बच्ची का गुब्बारा जब फूट गया तो
वह बहुत रोई और फिर सुई धागा लेकर अपने पिता के पास आयी. यह देखकर पिता का मन विकल
हो उठा और उसने लाचारगी जाहिर करते हुए पुकार लगायी, ‘कोई उस बच्ची को समझा दे कि
फूटे गुब्बारे सिले नहीं जा सकते...’
इस
कविता को पढ़कर पाठकों ने विह्वल होकर प्रतिक्रियाएं दी तथा खुद को दुखी, सन्न,
आवाक! आदि महसूस किया. मुझे लगा कि कवि और पाठकों ने उस बच्ची के आँसू के मतलब को
समझने में भूल कर दी है.
उस
बच्ची के आँसू में निराशा, हताशा, दुःख, भय, कातरता या कोई नकारात्मक भाव नहीं था.
बच्ची जानती थी कि फूटे हुए गुब्बारे नहीं सिले जा सकते. लेकिन गुब्बारा फूट गया
तो वह बच्ची रोई, इसलिए नहीं कि उसका खेल बीच में रुक गया था, बल्कि इसलिए कि उसके
पिता बड़ी साध से उसके लिए यह गुब्बारा लेकर आए थे और उस गुब्बारे के फूटने पर दुखी
हुए थे. वह अपने पिता के दुःख की वजह से रोई थी. रोने के बाद आँसू पोंछकर वह सुई
धागा और फूटा हुआ गुब्बारा लेकर अपने पिता के पास पहुँची थी. वह जानती थी कि फूटा
हुआ गुब्बारा सिला नहीं जा सकता लेकिन सुई धागा लेकर वह पिता के पास इसलिए गयी थी
कि उसे अपने पिता पर और सुई धागे पर विश्वास था.
लेकिन अपनी
बच्ची के आँसू की भाषा समझने में नाकाम पिता अपनी बच्ची के विश्वास की रक्षा कैसे
कर पाते? कहो कवि?
प्रतीकात्मक तस्वीर |
दखलंदाजी
एक तस्वीर देखी इंटरनेट पर जिसमें जान
बचाकर भागते हिरण के पिछले पैरों को चीते ने अपने अगले पंजों से पकड़ रखा है. उस
तस्वीर को खींचने वाले मनुष्य ने हिरण और चीते के सिर पर फोटोशॉप के जरिए दो इबारत
लिख दी, हिरण के सिर पर लिखा, ‘हे! भगवान
मेरी जान बचा लो...’, चीते के सिर पर लिखा, ‘हे! भगवान, भूख भगाने का इंतजाम आज मेरे हाथों से
छिटकने न पाए...’ फिर बहुत चालाकी से उस चित्र पर सबसे ऊपर
लिखा गया, ‘ईश्वर किसकी प्रार्थना सुनेगा?’
इस सवाल के जवाब में अनेक जवाब थे, लेकिन
एक जवाब में छिपे दंभ ने ध्यान आकृष्ट किया, 'इसीलिए हमारी प्रार्थनाएं अनसुनी रह जाती हैं
क्योंकि ईश्वर भी खुद को असमंजस में पाता है...'
आज का इंसान खुद ही सवाल उत्पन्न करता
है और फिर खुद ही ईश्वर की तरफ से उस सवाल का जवाब देने लगता है. इंसान आज ईश्वर
के मन की भी जान लेने का दंभ भरने लगा है. इंसान कि जिसने ईश्वर के होने न होने के
बारे में सदियों से कोहराम मचा रखा है, इंसान कि जिसने
ईश्वरीयता के आकलन के लिए अनेक ग्रन्थ-पुराण-शास्त्र रच डाले, इंसान कि जिसने आजतक स्वयं मनुष्य होने का ककहरा भी नहीं सीखा, वही इंसान आज खुद को ईश्वर का विधाता और ईश्वरीयता के ज्ञाता के तौर पेश
करते किंचित भी नहीं झिझक रहा है, दरअसल धन और धर्म को
आज के मनुष्य ने एक ही साबित करने का एकमार्गी दंभ ओढ़ लिया है. दंभ आज इंसान की
दुनिया का सबसे मजेदार खेल है, यह जानते हुए कि सच बोलने पर
अकेला कर दिया जाऊंगा आपसे पूछना चाहता हूँ, ‘सच बताइएगा कि
आप भी तो कहीं इस खेल में मुब्तिला नहीं?’
प्रतीकात्मक तस्वीर / पुष्पेन्द्र फाल्गुन |
मूल-मंत्र
सही को सही तो गलत भी कह सकता है लेकिन
गलत को गलत बिना सही हुए न कहा जा सकता है न माना और न समझाया पर गलत रहते हुए गलत
को सही जबरन मनवाने वाले को ही हुक्मरान कहते हैं.
सीढ़ियों पर बैठे हुए लोग नहीं जानते
कि सीढ़ी वाहक मात्र है. वह ऊपर ले जाती है तो क्यों और किसको? वह अगर नीचे उतारती है तो क्यों
और किसको? सीढ़ियों पर बैठे हुए लोग शव-यात्रा में अड़ंगे
सिद्ध होते हैं. यह सीढ़ी लकड़ी की हो कि लोहे की या सीमेंट की, धर्म की हो कि राजनीति की या आग्रह की.
विश्वसनीय वही हो सकता है जो सवालों
के घेरे में है. जिसको लेकर कोई सवाल नहीं उस पर कोई क्यों विश्वास करे?
क्या
आपने कभी किसी की सराहना की है? हो सकता है कि आपको इस सवाल के जवाब में कोई
दृष्टान्त या घटना न याद आए लेकिन उस व्यक्ति को अवश्य याद होगा कि जिसकी आपने
सराहना की होगी. क्या आप जानते हैं? सराहना हमें आजीवन याद रहती है लेकिन आलोचना
हम समय के साथ भूल जाते हैं. मनुष्य के साथ ही समस्त प्राकृतिक जीवों में यह गुण
पाया जाता है. जब आप किसी मनुष्य की सराहना करते हैं तो दरअसल समस्त प्रकृति और
उसकी प्रक्रिया की सराहना करते हैं. सराहना का अर्थ प्रशंसा या चाटुकारिता नहीं
होती. सराहना वह प्रतिसाद है जो आप किसी के गुण की बदौलत किए गए कर्म के परिणाम के
उपरांत व्यक्त करते हैं. सराहना के लिए मन का उदात्त होना जरुरी है. क्या हमारे
पास उदात्त मन है?
(पुष्पेन्द्र फाल्गुन इस वेबसाइट ब्लॉग फाल्गुनविश्व.कॉम एवं पत्रिका फाल्गुन विश्व के प्रकाशक / संपादक हैं. उनसे thefalgunvishwa@gmail.com या pushpendraphalgun@gmail.com पर मेल के जरिये या फिर मोबाइल क्रमांक 9372727259 संवाद साधा जा सकता है).
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