Skip to main content

आइने में खुद : फाल्गुन विश्व का ग्यारहवां संस्करण प्रकाशित...

 इस बार का अंक केन्द्रित हैं 'आइने में खुद' पर 


इस बार पढ़िए - 

मिशन मन में - कवि होना, कविता होना

पहली बात में - ‘पत्रिका क्यों निकालते हो?’

हिन्दुस्तान से एक खत / इंतजार हुसैन - पृष्ठ 4 से 7 पर

फ़हीम अहमद की छह कविताएँ  - पृष्ठ 8 एवं 9 पर

शाकिर उर्फ़ के जरिए मौजूं समाज की पड़ताल / रामनाथ शिवेन्द्र - पृष्ठ 10, 11 पर

खेतीविहीन हो जाएगा अन्नदाता : वी. एम. सिंह / साक्षात्कार -  पृष्ठ 12 पर

दो हजार साल पुराने गढ़ की उपेक्षा / निरंजन शर्मा - पृष्ठ 13 पर

गुल सनोबर का पहला अंश - पृष्ठ 14 पर

पराजय के निशान / बजरंग बिश्नोई की कविता - पृष्ठ 15 पर

 अंक डाउनलोड करने के लिए लिंक

मिशन मन / समग्र चैतन्य 

1.

कवि होना
हर होने को महसूस करना है
हर एहसास को जीना है
हर जीने को जीवंत करना है
हर जीवन की आँखें होना है
फिर उस होने को महसूस करना है
फिर उस एहसास को जीना है
फिर, फिर और फिर
होते ही रहना है
होते ही जाना है
इस तरह होते-होते
एक दिन चुक जाना है...

कवि होना दरअसल कविता होना है...

 

 

2.

वह सब बहुत उदास हुए थे

देखते थे सदा मेरे चेहरे पर मुस्कुराहट

मेरे खुरदुरे हाथों को देखते ही उदास हो गए

उन्हें मेरी यात्राएं और उन यात्राओं की कहानियां बहुत भाती थी

पर पैरों के छाले-फफोले देखकर मुँह बिदकाते थे

आश्चर्य से पूछते थे जुराबों और जूतों के बारे में

मैं कहता कि नहीं जानता इनके बारे में

तो उन्हें मुझसे ही वितृष्णा हो गई

वे आपस में बात करते

कि बिना मोज़े और जूते के भला कोई यात्रा करने की सोचता ही क्यों है

विद्वानों से उन लोगों ने इस बारे में संहिता बनाने की गुजारिश की है

स्वप्न देखती आँखे लिए मेरे चेहरे पर घृणा से थूकते हैं वे

कहते हैं गधा है जो हम कवियों के बीच रहकर स्वप्न देखने की हसरत रखता है

पर अब मैं उनके बीच नहीं रहता हूँ

अपनी ही तरह स्वप्न देखते हुए लोगों के बीच हूँ

खुरदरे हाथों और फफोलों वाले पैरों के साथ जीता-चलता हूँ

ये नामहीन आमजन मुझे देखकर अक्सर बात करते हैं आपस में

कवि क्या ऐसे होते हैं बिल्कुल हमारी तरह

मैं उनकी बातों को सुनकर सिर्फ इतना ही इशारा करता हूँ

कविताएं लिखता हूँ

कविताएं जीता हूँ

कवि हूँ

कविता हूँ

 

 अंक डाउनलोड करने के लिए लिंक


पहली बात / पुष्पेन्द्र फाल्गुन

पत्रिका क्यों निकालते हो?

 

इधर बहुत से लोगों ने सवाल करना शुरु किया है, ‘पत्रिका क्यों निकालते हैं आप?’

इस तरह के सवालों पर हँसी जाती है. मन करता है कि उल्टा पूछने वाले से ही सवाल करुँ, ‘जीते क्यों हैं आप?’

लिखना-पढ़ना, समझना-समझाना मेरे लिए जीने की तरह है. मैं इसी तरह जी सकता हूँ. यह सब नहीं करता तो जीने के लिए संघर्ष करता हूँ. पर आपके मन में जो पत्रिका के प्रकाशन को लेकर सवाल उठ रहा है, या उठने लगा है या कि उठ चुका है, दरअसल वह मेरे जीने को लेकर सवाल है. आप नहीं चाहते कि मैं भी जी सकूं.

मेरे इर्द-गिर्द रहने वाले ज्यादातर लोगों के मन में मेरे जीने को लेकर घोर आपत्ति है. आप पूछ सकते हैं कि उन्हें आपत्ति क्यों है? तो इस सवाल का सही जवाब सिर्फ इतना है कि यह तो आपत्ति करने वाले ही जाने लेकिन मैंने आज तक उन आपत्ति करने वालों को निजी तौर पर, जाने-अनजाने में कभी कोई नुकसान नहीं पहुँचाया है. ईर्ष्या के अलावा और क्या वजह हो सकती है? उल्टे मेरी वजह से जिनका जीवन सीधे या परोक्ष तौर प्रभावित हुआ है, वे मुझे इतनी अच्छी तरह जानते हैं कि जब से पत्रिका का पुनर्प्रकाशन शुरु हुआ है, वे सभी बेइन्तिहा खुश हैं और वे सभी सतत दुआएं-प्रार्थनाएं करते हैं कि चाहे जो हो पत्रिका सतत प्रकाशित होती रहे.

सच तो यह कि जिन लोगों नेपत्रिका क्यों प्रकाशित करते हैं’ जैसे सवाल करने शुरु किया है, पत्रिका पढ़ने के बाद से वह डरे हुए हैं. साधारण से कागज पर, अत्यंत साधारण तौर-तरीके से छपने वाली पत्रिका में जिस तरह के वैचारिक, सामाजिक, साहित्यिक रचनाएं होती है, वह उन्हें भीतर तक झकझोरती है और उन्हें अपने जीवन में मानवीय संवेदना के अनुरुप बदलाव करने के लिए प्रेरित करती है. बदलाव तो वैसे भी एक खतरनाक प्रक्रिया है, खासकर तब जब कि आपको नफरत, द्वेष, उन्माद, प्रतिद्वंद्विता और स्वार्थ से उबरकर इंसानियत को जीवन में शिरोधार्य करना है.

लक्ष्यहीन जीवन की नाव खेते हुए, जैसे-तैसे मार्ग से जब जिन्दगी से सुविधा भोगने के आप आदी हो जाते हैं और सही-गलत, न्याय-अन्याय, झूठ-फुर को अपनी सुविधा और सहूलियत की तराजू पर तौलने में यकीन करने लगते हैं तभी आपको हम जैसे लोगों के जीवन और जीवन को रचते काम फालतू और बेकार नजर आने लगते हैं, क्योंकि हम जैसों का जीवन और काम दरअसल दम्भी, पाखण्डी, अमानवीय और बेगैरत लोगों के जीवन सिर्फ झकझोरता है, बल्कि उनके लिए चुनौती भी पेश करता है कि सच्चाई और इंसानियत का रास्ता इतना आसान है तो फिर भाई तूने क्यों इतना कठिन जीवन चुन रखा है! बदल, खुद को बदल

यह चुनौती कहीं, आपके दिल की, आपके मन की, आपके आत्मा की आवाज बन जाए, इसलिए आप सीधे पत्रिका को ही हतोत्साहित करने लगते हैं और मुझसे सवाल करने लगते हैं, ‘पत्रिका क्यों निकलता है बावले!’                   

            ०००००००००

  अंक डाउनलोड करने के लिए लिंक



 


Comments

Popular posts from this blog

साप्ताहिक फाल्गुन विश्व का प्रकाशन आरंभ...

पत्रिका फाल्गुन विश्व का पुनर्प्रकाशन शुरु हो गया है. पत्रिका अब साप्ताहिक स्वरुप में प्रकाशित हुआ करेगी. पत्रिका पढ़ने के इच्छुक नीचे दिए लिंक से डाउनलोड कर पीडीऍफ़ स्वरुप में पत्रिका पढ़ सकते हैं. https://drive.google.com/file/d/1TOJhqAN_g7V6cH74x9XpoKodG4PCHFNC/view?usp=sharing

लोकमत समाचार में प्रकाशित स्तम्भ 'मन-नम' से कुछ भाग...

 सवाल-जवाब : एक  सवाल - जवाब : दो  अकेला  उलूक भय  संक्रांति  नया साल और नैनूलाल 

सोशल डिस्टेंसिंग बनाम फिजिकल डिस्टेंसिंग : मंशा समझिए

विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से जारी प्रेस विज्ञप्ति में फिजिकल डिस्टेंसिंग का उल्लेख और इसे ही इस्तेमाल करने की सिफारिश  नॉवेल कोरोना वायरस के नाम पर जबसे भारत सरकार की तरफ से आधिकारिक बयान आने लगे और मीडिया में COVID-19 नामक इस वायरस को कुख्यात करने का खेल शुरु हुआ, तबसे एक शब्द बारम्बार प्रयोग किया जा रहा है और वह शब्द है, 'सोशल डिस्टेंसिंग*.' इस शब्द को जब मैंने पहली बार सुना तबसे ही यह भीतर खटक रहा था, वजह सिर्फ इतनी ही नहीं कि भाषा और साहित्य का एक जिज्ञासु हूँ, बल्कि इसलिए भी कि इस शब्द में  विद्वेष और नफरत की ध्वनि थी / है. मैंने दुनिया भर की मीडिया को सुनना- समझना शुरु किया. चीन कि जहाँ नॉवेल कोरोना वायरस का प्रादुर्भाव हुआ और जहाँ से पूरी दुनिया में फैला, वहाँ के शासकों और वहाँ के बाजार ने 'सोशल डिस्टेंसिंग' शब्द का इस्तेमाल किया, इटली ने किया, ईरान ने किया, अमेरिका धड़ल्ले से कर रहा है. भारत सरकार के समस्त प्रतिनिधि, तमाम मीडिया घराने और उनके कर्मचारी, देश भर के अख़बार, आमजन और बुद्धिजीवी सभी 'सोशल डिस्टेंसिंग' शब्द का चबा-चबाकर खूब इस्तेमाल कर र