इस अंक में पढ़िए...
भारतीय काल गणना पर विशेष
मिशन मन के अंतर्गत पढ़िए , 'अपनी संकल्पशक्ति को समझें...'
स्तम्भ पहली बात में, 'यह लॉकडाउन : एक चेतावनी'
कन्हानवारी में, 'मुरारीलाल गुप्ता से भी मिलते चलिए...'
फेसबुक से... राजेश के मिड्ढा का आलेख, 'लिखा वियोग गीत, बन गया अम्रर प्रेम गीत'
अंत में, 'देशी पान और गुस्ताख चूना'
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मुरारीलाल गुप्ता की कहानी पढ़िए ... लिंक
(यहाँ पूरी कहानी जस की तस पढ़िए)...
मुरारीलाल गुप्ता से भी मिलते चलिए
लेखक - विवेक पाटिल
अपनी सब्जी की दुकान पर मुरारीलाल गुप्ता |
हालाँकि वह सब्जी बेचने का काम करते हैं लेकिन उनकी देहयष्टि एवं मुस्कराहट किसी दार्शनिक जैसी है. आप चाहे कितने ही नाराजगी से भरे हों या फिर कितना ही गुस्सा आपको आ रहा हो, एक बार मुरारीलाल गुप्ता की मुस्कराहट से आपका सामना हुआ तो फिर आपके भीतर का बच्चा भी खिलखिलाकर बाहर आ जाएगा. मुरारीलाल गुप्ता दार्शनिकों जैसे दिखाई ही नहीं देते, बल्कि हैं भी. दर्शन जीवन जीने के तरीके से जन्म लेता है और जब व्यक्ति बने-बनाए तरीके से नहीं बल्कि अपने आत्म-सम्मान की रक्षा करते हुए नियति के समक्ष आत्म-समर्पण करता जाता है तो फिर वह दार्शनिक हो ही जाता है.
पन्द्रह वर्ष की अल्हड़ उम्र में मुरारीलाल 1972 में अपने पिता भागीरथी गुप्ता के साथ उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के एक गाँव कोठा-बनकठी से कामठी कॉलरी आए थे. आते ही रोजगार के लिए प्रयासरत हो गए. कामठी कॉलरी में मोहन सपरा के कपड़े की दुकान पर उन्हें पचास रुपए महीने कु नौकरी मिल गई. मन लगाकर काम करने लगे. लेकिन मेहनत और परिवार की जरुरत के बीच आमदनी का तालमेल नहीं बैठ रहा था, लिहाजा एक राशन दुकान में वह प्रतिदिन चार रुपए की रोजी से नौकर हो गए. राशन दुकान चलाने वाला व्यापारी उनसे दुकान के साथ, निजी काम भी कराने की कोशिश करता था, जिससे अक्सर उनकी अपने मालिक दुकानदार से तकरार हो जाती. आखिर एक दिन उन्हें आत्म-सम्मान और नौकरी के बीच चुनाव के लिए बाध्य होना पड़ा तो मुरारीलाल गुप्ता ने आत्म-सम्मान को तवज्जो दी.
नौकरी नहीं रहने पर गुजारे की चिंता होने लगी. उन दिनों आम का मौसम था, मुरारीलाल ने आम की छोटी रेहड़ी लगानी शुरु कर दी. हालाँकि काम कुछ अच्छा नहीं चला, लेकिन इसी से उन्हें सब्जी की दुकान लगाने का ख्याल आया. सब्जी बेचने का काम शुरु करते ही उनकी समझ में आ गया कि इस व्यापार में जो लोग पहले से लगे हुए हैं, वे जल्दी इसमें किसी और को जगह बनाने नहीं देंगे. मुरारीलाल गुप्ता प्रतिद्वंद्वियों से मुकाबला करने में सक्षम थे लेकिन हालात उन्हें लड़ने-झगड़ने नहीं संघर्ष करने के लिए प्रेरित कर रहे थे. उन्होंने ज्यादा सोचे बिना, किराणा दुकान शुरु की. आरंभिक मुश्किलों के बाद दुकान चल निकली. दुकान से जब ठीक-ठाक आमदनी होने लगी तो मुरारीलाल ने अपनी गृहस्थी बसाई. धीरे-धीरे जीवन पटरी पर आने लगा. एक मित्र की सहायता से आगे चलकर उन्होंने कुछ जमीन भी खरीद ली. सबकुछ ठीक ही चल रहा था कि 1990 में शॉर्ट सर्किट से उनकी किराणा दुकान में आग लग गई. हालाँकि लोगबाग आज तक आशंका जाहिर करते हैं कि वह आग लगी नहीं थी लगाईं गई थी लेकिन मुरारीलाल गुप्ता ने कभी भी न तो किसी पर आरोप लगाया और न ही शिकवा-शिकायत ही की. जिंदगी हर कदम पर उनके लिए जो कुछ लेकर आती गई, उसे उन्होंने स्वीकार किया.
एक बार बातचीत में उन्होंने कहा था कि उन्हें जिंदगी में दो काम बखूबी आए, हिम्मत बनाए रखते हुए संघर्ष करना और ईश्वर पर भरोसा करते रहना.
दुकान आग में स्वाहा हो चुकी थी लेकिन न तो मुरारीलाल गुप्ता की हिम्मत टूटी और न संघर्ष की इच्छा. उस हादसे के बाद उन्होंने फिर से सब्जी बिक्री का व्यवसाय शुरु किया.
उनके बोलचाल, स्वाभाव और ग्राहकों के प्रति अपत्व के भाव ने जल्दी ही उनके सब्जी व्यवसाय को नई ऊँचाई पर पहुँचा दिया. उनके दुकान के ग्राहक तय हो गए और उनके ग्राहक हर हाल में उन्हीं से सब्जियां खरीदते फिर उसके लिए चाहे उन्हें जो कीमत चुकानी पड़े. उसका सबसे बड़ा कारण था, सही तौल और वजन के साथ ताजी सब्जियों का उनकी दुकान पर मिलना.
जिंदगी के हादसों ने उनका हौंसला तो पस्त नहीं किया लेकिन संघर्षों के चलते उनके दोनों बेटों श्यामसुंदर और श्यामनारायण की स्कूली शिक्षा जरुर प्रभावित हुई. उनके दोनों बेटे उनसे ज्यादा मेहनतकश और हिम्मती हैं. बेटों को जरुर वह ज्यादा नहीं पढ़ा पाए लेकिन अपनी बेटियों को उन्होंने शिक्षित किया. बेटियां आज अपने-अपने ससुराल में सुख एवं आनंद से हैं. दोनों बेटे श्यामसुंदर और श्यामनारायण अपने पिता के सब्जी व्यवसाय में हाथ बंटाते है. दोनों बेटे पिता के व्यवसाय को बखूबी आगे बढ़ा रहे हैं, दोनों ही पिता की तरह मिलनसार एवं ईमानदार हैं. और अपने-अपने काम के प्रति समर्पित.
दार्शनिक मुरारीलाल गुप्ता
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