फाल्गुन विश्व के महिला दिवस विशेषांक में आपका स्वागत है...
आवरण पर पढ़िए सुनीता करोथवाल की कविता 'इतना आसान कहाँ था गृहिणी होना'
इतना आसान कहाँ था गृहिणी होना
चलती कलम छोड़ झाडू घसीटना
दूध की मलाई खाना छोड़
मक्खन के लिये बचत करना
दुपट्टे से उम्र के सम्बंध जोड़ना
कभी साड़ी में घिसटना
कभी चुनरी खिसकने से संभालना
किताबें छोड़
गृहस्थी पढ़ना
एक एक फुल्का गोल सेंकना
सहेलियाँ छोड़
दीवारों से बात करना
चुप रहना
मस्तियाँ भुला
बड़ी होने का ढोंग करना
झुमकियों से कानों का बोझ मरना
घूंघट में खुद को गुनहगार समझना
पीला रंग उड़ा कर
तुम्हारी पसंद पहनना
हाथ की घड़ी उतार
खनकती चूडियाँ पहनना
पायलों का पैरों में चुभना
कपड़ों के साथ सपने निचोड़
धूप में सुखाना
रोज सुबह जल्दी उठना
अपनी फिक्र छोड़
सबकी सुनना
मैथ के सवाल करते करते
अचानक दूध के हिसाब करना
इतना आसान कहाँ था गृहिणी होना...
-सुनीता करोथवाल
इस अंक में तीन चौथाई से अधिक पृष्ठों पर स्त्री रचनाकारों की रचनाएं हैं...
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इस अंक के रचनाकार हैं
कु. सिया मिश्रा
कु. दिया मिश्रा
कु. रिया मिश्रा
कल्पना मनोरमा
सीमा 'सदा'
घुघूती बासूती
पृष्ठ दो पर...
जीवन - अंत या अंततः
लेखिका हैं - दिया मिश्रा
जीवन को एक अद्भुत समुद्र के समान मानिए. जिसकी लहरें चाहे कितनी ही खतरनाक दिखाई देती हों, लेकिन अगर कोई तैरकर उन लहरों का सामना करना चाहे तो फिर चाहे जितना ही संघर्ष क्यों न हो, उस संघर्ष का अंत अच्छा ही होता है. शर्त बस इतनी ही है कि, आपको सब के साथ मिलकर, बिना हिम्मत हारे पूरी ईमानदारी से तैरना है और अंत तक जाना है.
तैरने की जब शुरुआत हुई तब कुछ समय तक सब ठीक था, सब अपनी पूरी मेहनत से आगे बढ़ते, थक जाते तो रुक जाते, किसी को मदद की जरूरत हो तो बिना कुछ सोचे उसे अपना कंधा दे देते.
पर जैसे-जैसे लहरें और विशाल होती गई लोगों में साहस कम होता गया आखिर में डर कर कुछ लोगों ने नाव का निर्माण शुरू कर दिया. शर्त तैरने की थी पर नाव के निर्माण से भी अभी कुछ बहुत गलत नहीं हुआ था. स्वाभाविक है नाव पर सब साथ में नहीं बैठ सकते थे. इसलिए सब ने बारी-बारी से उसमे बैठने का फैसला किया और फिर से साथ में आगे बढ़ने लगे. सब शांति से एक दूसरे के साथ से आगे बढ़ रहे थे पर कुछ लोगों का डर इतना बढ़ गया कि उनके डर ने उनके मन को गलत विचारों से भर दिया. अब जब नाव पर चढ़ने की दूसरे लोगों की बारी आयी तो इन लोगों ने नाव से नहीं उतरने का फैसला किया. लोगों ने आपत्ति जताई पर एक बार मन में शैतान बैठ जाए तो इंसानियत की सीमा पार कर लोग कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं. उन्होंने लोगों के बीच में अपनी दहशत फैलाना शुरू कर दिया इतना ही नहीं उन्होंने लोगों के मन में भी डर और लालच की भावना उत्पन्न करना शुरू कर दिया. अब नाव के जहाज बनने शुरू हो गए. और इस पर सवार लोगों ने अपनी कायरता को छुपाने के लिए खुद को महान और समझदार बताना शुरू कर दिया. अपने नजरिए को दुनिया में सही बोलकर बेचना शुरू कर दिया. लालच, बड़ा आसान हो गया. किसी भी इंसान को लालची बनाना, जो चाहे वो भाव मन में डाल कर चला जाए. लहरों को और ज्यादा खतरनाक बताया गया. लोगों को डराया गया और सबको नाव या जहाज पर बैठने का लालच दिया गया. इसके बदले जो बोले वो करने के लिए लोग तैयार हो गए. अब बिना किसी भय के गलत होने लगा, जो लोग गलत पर सवाल करते उन्हें लहरों से भी कई अधिक पीड़ा दी जाती. सब के आँखों के सामने मोह का परदा डाल दिया गया और अब यही दुनिया बन चुकी थी. इन लोगों के जीवन में अब कुछ करने को ही नहीं बचा था समुद्र को पार करने की कोशिश तो कर रहे थे पर बिना मेहनत के. क्या बिना मेहनत के तैरा जा सकता है? नहीं, पर अब जो लोग नीचे तैरकर अपना सफर काट रहे थे उनके लिए लहरों का सामना करना ही एकमात्र चिंता नहीं थी, अब उन्हें बड़े जहाजों से भी खुद को बचाना था छोटे नाव पर सवार लोगों से भी बचना था और ऐसे में परिवार का एक भी सदस्य उस जहाज पर सवार होने की जिद्द करने लगे तो उनकी इच्छाएं पूरी करने का भी भार बढ़ता जा रहा था.
अब जहाजों पर सवार भी समुद्र को पार करने में असमर्थ होने लगे. उन्हें समुद्र अब और भी गहरा और लंबा लगने लगा तो उन्होंने समुद्र में ही जीवन यापन करने का फैसला कर लिया. लोगों को अपनी सीमा ही समुद्र का अंत बता कर उन्हे आनंद और सुख का छलावा दिया गया. अब कोई आगे बढ़ ही नहीं रहा और जो कोशिश करेगा उसे कोई भी सुविधा नहीं दी जाएगी.
अब तो किसी को भी अंत नहीं देखना.
नाव पर सवार लोगों को अमीर कह कर पुकारा जाने लगा. और गरीब वे जो सिर्फ तैर सकते है. और भी बीच में कई वर्ग निर्माण होने लगे. करने को कोई काम नहीं बचा अब जिसके मन में जो आ रहा वो वह करने के लिए अपनी जान लगा दे रहा है. पर, क्या ये सब करने के लिए जान लगाना था? शुरुवात ये सोच कर की गई थी?
जहां एक तरफ ये सब समझने की कोशिश हो रही थी तो दूसरी तरफ राजनीति का निर्माण हुआ. और अपने मनोरंजन के लिए लोगों ने कुछ भी करना और कुछ भी करवाना शुरू कर दिया.
साधारण इंसान के लिए तैरना भी मुश्किल हो गया
अब एक शर्त नहीं थी जो उसे पूरी करनी थी, पैसे वालो ने और भी कई नई शर्तें बना डाली जिसे पूरा करना समुद्र पार करने से ज्यादा जरूरी हो गया. समुद्र अब पैसों वालो का बन चुका था.
छोटी सी नाव से बड़े जहाज अब सब समुद्र पर दिखाई दे रहे है.
और आम आदमी? वो अगर किसी जहाज़ के नीचे नहीं आया तो बच जाए पर शर्तों के भार से डूब जाता है. पर अब तो कोई समुद्र को पार भी नहीं करना चाहता. और जो कोशिश करता है उसे दुनिया मूर्ख या कायर कहती है.
सबसे ज्यादा खतरना वो लोग हैं जो जहाज पर लगी रस्सी पर आधे चढ़े रहते हैं जो ना ही तैरते हैं न ही जहाज पर सही तरह से सवार होते है. वे नीचे देखते है तो तैरने वालो के साथ जहाज पर सवार लोगों की बुराई करते हैं और ऊपर देखते है तो तैरने वालो का मजाक उड़ाते हैं.
अब जहाज काफी ज्यादा संख्या में बन चुके हैं, सभी को उसमें पनाह दी जाए इतनी जगह है. पर अब सवाल ये है की जहाज का निर्माण आवश्यक था? क्या इतनी सुख सुविधाओं की जरूरत थी ? अगर कोई व्यक्ति जो तैर रहा है अगर वो भी उस जहाज पर सवार होना चाहे तो क्या वो सही है या गलत? क्या जहाज पर सवार लोगों को तैरने वाले की मदद करनी चाहिए? क्या तैरने वालो को जहाज पर सवार लोगों की मदद लेनी चाहिए? क्या कभी ये समुद्र पार होगा? इस समुद्र का अंत जीवन अंत से तो नहीं है? क्या मन में आए इन प्रश्नों के सही जवाब हैं भी?
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विज्ञापन का व्यापन
लेखिका हैं - सिया मिश्रा
विज्ञापन उद्योग अपने चरम सीमा पर पहुँच गया है. विज्ञापन की दुनिया की आज यह स्थिति है कि भाषा, तकनीक, कला, प्रस्तुतिकरण अथवा रचनात्मकता के स्तर पर कहीं कोई नवोन्मेष होता है तो उसे ‘चोर दरवाजे’ से विज्ञापन की दुनिया वाले अपने यहाँ खींच ले जाते हैं. विज्ञापन निर्माण एवं विज्ञापन रचना के क्षेत्र में लगे लोग ‘रचनात्मक स्तर’ पर शून्य हो चुके हैं. उन्हें कुछ सूझ ही नहीं रहा है. ऐसा लगता है कि उन्होंने सारे प्रयोग कर लिए, सारे तरीके आजमा लिए हैं, नया उन्हें अब कुछ नहीं सूझ रहा है.
1704 में पहला विज्ञापन प्रकाशित हुआ था. 1941 में पहली बार विज्ञापन प्रसारित हुआ था. इतने वर्षों में विज्ञापन को आकर्षक बनाने के लिए बाजार ने क्या कुछ नहीं किया.
रंगीन और संगीतमय विज्ञापनों से ये सिलसिला शुरु हुआ और समय-हालात के साथ इसमें सतत प्रयोग होते रहे हैं. प्रयोग तो खैर आज भी हो ही रहे हैं तभी तो किसी बुद्धिमान ने विज्ञापनों के साथ भावनाओं को चस्पा कर दिया. ‘माँ का भरोसा’, ‘पापा का प्यार’ और न जाने क्या-क्या. विज्ञापन देखने का नजरिया ही लोगों का बदल दिया गया है. बचपन और पचपन सभी उम्र के लोगों के साथ नए-नए प्रयोग जारी ही हैं.
पहले नैतिक जरुरतों के मद्देनजर बाजार में उत्पादन होता था. लोगों की दैनिक जीवन को सहज बनाने के लिए वस्तुओं का उत्पादन होता था. धीरे-धीरे ऐसी सब चीजें बन गईं और लोगों ने खरीद भी ली, किसी ने विज्ञापन देखकर, किसी ने पड़ोस में देखकर.
आज बाजार में एक ही वस्तु के अलग-अलग ब्राण्ड आ गए हैं और हर एक ब्राण्ड, एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में लगा हुआ है. आगे निकलने की होड़ में वस्तुओं का विज्ञापन अब अहम् भूमिका निभाता है इसलिए विज्ञापन अब सिर्फ वस्तुओं अथवा उसकी उपयोगिता तक सीमित नहीं रह गया है बल्कि अब भावनाओं का भी विज्ञापन होने लगा है.
दंतमंजन का ही उदाहरण लेते हैं, दंतमंजन के न जाने कितने ब्राण्ड हैं, यहाँ तक कि मंजन अब बहुत से रुप में मौजूद है. दंतमंजन अब सिर्फ दांतों की सफाई या मजबूती के लिए नहीं आता है बल्कि विज्ञापनों की मानें तो अब दंतमंजन, स्वाद (टूथपेस्ट में नमक) के साथ लोगों को करीब लाने, कीटाणुओं से सुरक्षा, मुस्कुराहट को खूबसूरत बनाने, ‘माउथ फ्रेशनिंग’ का ‘पैकेज’ है.
साबुन को देखिए, वह भी बदल गया है. पहले के विज्ञापनों में साबुन खुशबू के साथ शरीर की सफाई का जरिया था, अब बाजार के नए विज्ञापन यह बताते हैं कि साबुन आज जवान दिखने, त्वचा को कोमल / मुलायम बनाने के साथ ‘बाउंसी’ (जोशीला / उछालदार) भी बनाता है. अब अगर साबुन सचमुच ‘बाउंसी’ बनाए तो महिलाओं के लिए आज के असुरक्षा भरे माहौल में इससे कितनी मदद हो जाए, यदि कोई उन पर वार करे तो स्वतः ही उछल कर दूर जा गिरे.
एक दौर था जब टेलीविजन पर अपने पसंदीदा कार्यक्रम (शो) देखने के लिए लोग अपने काम जल्दी-जल्दी निपटाकर टीवी के सामने बैठ जाते थे, अब काम निपटाने की कोई जल्दी नहीं होती, लोगबाग कार्यक्रम के बीच में विज्ञापनों के प्रसारण समय में अपने काम निपटाने लगे हैं. इसमें मजेदार यह है कि दो विज्ञापन-ब्रेक में ही सारे जरुरी काम निपट जा रहे हैं. शो से ज्यादा लम्बे समय तक विज्ञापन ही चलते हैं. अब विज्ञापनों की संख्या काफी बढ़ गई है, क्यों न हो, बाजार भी तो कितना बढ़ गया है, अब तो हर बात के लिए नया प्रोडक्ट है और हर प्रोडक्ट के लिए नया विज्ञापन.
प्रोडक्ट या उत्पादों में सबसे ज्यादा सुन्दरता बढ़ाने या निखारने के प्रोडक्ट हैं. सिर के बाल से पैर के नाखून तक शरीर के सभी अंगों को सुंदर बनाने का कारोबार बाजार में खूब फल-फूल रहा है. व्यक्ति को सुंदर बनाने के उत्पादों के साथ उसके घर, कार, पंखे, टीवी और बाथरूम तक उसकी जरुरत की हर चीज को निखारने के उत्पाद विज्ञापनों के जरिए इस तरह पेश किए जाते हैं कि देखते समय आपको लगे कि आप इन उत्पादों के बिना सुंदर लग ही नहीं सकते / हो ही नहीं सकते.
बाजार अब लोगों को सुविधाएं नहीं देता, गुमराह करता है. बड़ी ही आसानी से विज्ञापनों में कलाकार ‘विश्वास’, ‘प्रेम’, ‘वादा’ जैसे गंभीर अर्थों वाले शब्दों का प्रयोग करते हैं वो भी गैर जरुरी या निम्न जरुरी वस्तुओं को बेचने के लिए. बाजार भी युवाओं को देश का भविष्य मानता है इसलिए युवाओं को ही सबसे ज्यादा अपना शिकार बनाता है. बाजार ने युवाओं को शरीर की सुंदरता में इतना उलझा दिया है कि मन की सुंदरता का विचार ही अब उनके जीवन से गायब है. विचार तो छोड़िए, आज के युवा, मन की सुंदरता की अवधारणा ही नहीं जानते. सुंदर, सुंदरता का इतना बोलबाला बाजार ने फैलाया है कि प्राकृतिक सौन्दर्य जैसे विचार विलुप्त हो गए हैं. बाजार तो आज यह दावा करता है कि उसके उत्पादों से प्राकृतिक सुंदरता आती है. ‘फेयरनेस’ (सुन्दरता), ‘ग्लो’ (चमक), ‘क्लियर स्किन’ (निखरी त्वचा) जैसी बातों को युवाओं के आत्मविश्वास से जोड़ दिया है, जिसके चलते यदि किसी युवा का रंग साफ नहीं है या बाजार की दृष्टि से उसमें जरा भी कमी है तो वह हीन भावना से ग्रस्त हो जाता है.
हम सभी जानते हैं कि बच्चों के मासूम मन में यदि कोई बात घर कर जाए तो वे बड़े होने पर भी उसी बात के अनुसार आचरण करते हैं तो एक चॉकलेट के विज्ञापन में वृद्धा की मदद न करने की हिदायत को आखिर बच्चे किस तरह लेंगे?
कोरोना काल में तो जैसे सुरक्षा उत्पादों की बाढ़ सी आ गई है. सुरक्षा को सुन्दरता से इस तरह जोड़ दिया गया है, जैसे ये एक ही गाड़ी के दो पहिये हों, विज्ञापन कह रहे हैं, ‘सुन्दरता से सुरक्षित रहिए’ या ‘सुरक्षा से सुंदर बनिए.’
विज्ञापनों में आप आम आदमी से जुड़े दृश्य नहीं दिखाते, बल्कि आम आदमी के भीतर लालसा पैदा हो ऐसे दृश्य दिखाते हैं. बाजार का सारा कारोबार आम आदमी में लालसा उत्पन्न करने से चलता है इसलिए बाजार ऐसे ही विज्ञापन बनाते हैं जिसमें बड़े घर होते हैं, स्टाइलिश कपड़े होते हैं, बड़ी गाड़ी और ऐश्वर्य के सारे इंतजाम होते हैं, जिन्हें देखकर आम आदमी उन्हें पाने की लालसा में तड़प उठे. विज्ञापन वाली ‘मम्मी’ भी कितनी अच्छी होती है न! अपने बच्चों के कपड़ों में दाग देखकर खुश होती है और एक हम आम लोगों की ‘मम्मी’ होती हैं जो दाग देखती हैं कपड़ों में तो बच्चों को ही ‘धो’ देती हैं. मुझे यह समझ नहीं आता कि आम आदमी विज्ञापनों में दिखाए उत्पादों से अक्सर अपना कोई सम्बंध नहीं जोड़ पाता है, फिर क्यों उन्हें खरीदने के लिए मरा जाता है? टेलीविजन पर प्रसारित होने वाले न्यूज़ चैनलों और रियलिटी शो’स ने तो जिन्दगी को ही विज्ञापन बना दिया है. लोग अब टेलीविजन में विज्ञापित जिन्दगी को ही अपनी जिन्दगी बनाने पर तुले दिखाई देने लगे हैं.
आज विज्ञापनों की पहुँच आम लोगों के दिल-दिमाग तक हो चुकी है, लेकिन विज्ञापन बनाने वाले विज्ञापनों के जरिए बस आम लोगों की सोच-समझ को कुंद बनाने में अलगे हुए हैं. एक उदाहरण देखिए, बाजार एलोवेरा के फायदे गिनाकर उसके उत्पाद बना कर बेच रहे हैं, लोगों को उन उत्पादों को खरीदने के लिए मना रहे हैं लेकिन एलोवेरा के पौधे लगाने की सलाह किसी को नहीं दी. मेरे मन में बार-बार कुछ सवाल उठते हैं, जैसे, आम जन के लिए कितने ही नियम-कानून बने है लेकिन आम जन उन नियम-कानूनों को जानते ही नहीं, लेकिन आम जन तक उन नियम-कानून की जानकारी पहुँचाने वाले विज्ञापन क्यों नहीं? दया, क्षमा, परोपकार, करुणा जैसे मूल्यों को बढ़ावा देने वाले विज्ञापन क्यों नहीं होते? शिक्षा के महत्व, बाल मजदूरी, बच्चों के शारीरिक-मानसिक शोषण, महिला पर बढ़ते अत्याचारों जैसे गंभीर मुद्दों पर लोगों को जागरुक बनाने वाले विज्ञापन क्यों नहीं बनाए जाते?
क्या ऐसा नहीं लगता कि आजकल के विज्ञापन मानवता के खिलाफ हैं? कलाकारों द्वारा उत्पादों को बेचने के लिए बोले जाने वाले ‘डायलॉग’ (संवाद) इंसानियत को खत्म करने वाले हैं? एक उत्पादन को बेचने के लिए विज्ञापनों में भावनाओं के धंधे को क्या सही ठहराया जा सकता है?
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विश्व महिला दिवस निमित्त कुछ कविताएं...
रिया मिश्रा की तीन कविताएं
1. बिलखती हँसी की गूँज
प्रश्नों के पहले ही
उत्तर का बवाल
भटकते हुए रास्ते
रास्ते पर तैरते आँसू
कहीं गुम आत्मा
कहीं बवाल, मिले जवाब और भटकते सवाल
और इन सबसे परे
मकानों की खामोशी
झोपड़ियों की चीख
आंगन की सूखी तुलसी
व्याकुल गुलाब
और कोने में बिलखते आँसू
बताओ और क्या बाकी!!!
2. गहराई
गहन चिंतन में बैठी कविता
हँसना चाहती है रोना चाहती है
हँसी थोड़ी रूठी हुई
आँखें सिर्फ आँसू से भीगीं हुई
होंठ खामोशी से पूछते हैं बता
ये खामोशी भी खामोशी क्यों चाहती है
और कुछ देर जवाब न देने पर ये खामोशी
एक गहरी हँसी मेरे पीछे छोड़ जाती है
राज हँसी में दफन हैं
या खामोशी में
यह समझना अभी शेष है.
3. पहचान
क्या लड़की होना
इतना मुश्किल होता है!
कि अपने अस्तित्व को पहचान देते-देते
अपना ही अस्तित्व बचाना मुश्किल हो जाता है
औरों का तो पता नहीं
स्वयं को स्वयं से बचाना जरुरी हो जाता है
कभी आँसू आँखों में सुखाकर
होंठों को मुस्कुराने के लिए बाध्य करना पड़ता है
तो कभी
बहुत से गहरे राज
मन में दफन करने के लिए
जीना होता है
हे प्रभु!
क्यों हर लड़की को ही
अपना अस्तित्व बचाने के लिए
हर बार लड़ना होता है
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