Skip to main content

छठवां अंक प्रकाशित...

 इस बार के अंक में विशेष रुप से पढ़िए 'अथक मेहनत की मिसाल मुरारीलाल नागरे'



साइकिल के पैडलों पर पड़ते पैर अपने साथ उस वक्त को भी पीछे धकेल देते हैं जो व्यक्ति के संघर्ष, परिश्रम और प्राप्तियों के साक्षी होते हैं. लेकिन पीछे छूटा वक्त हर बीतते क्षण के साथ हमारी जिन्दगी और जिन्दगी जीने के तरीके की ऐसी कहानी लिखता है जो भाग्य की तरह हमारे जीवन से जुड़ जाती है. यदि कोई उस कहानी को पढ़कर अपना जीवन सँवारना चाहे तो उससे बड़ा सौभाग्यशाली और कौन हो सकता है.

कन्हान निवासी मुरारीलाल छदामीलाल नागरे की कहानी भी इसी तरह की है. मेहनत, परिश्रम, लगन और ईमानदारी से अपना जीवन सँवारने की इच्छा रखने वालों के लिए 72 वर्षीय मुरारीलाल नागरे का जीवन एक मिसाल है. हिन्दी के प्रख्यात कवि सोहनलाल द्विवेदी की काव्य पंक्तियोंलहरों से डरकर नौका पार नहीं होती / कोशिश करने वालों की हार नहीं होती’ की ही तरह उनका जीवन भी संकटों से जूझने और फिर उन संकटों को मातकर आगे बढ़ने का हौंसला देता है.

मध्यप्रदेश के सिवनी जिले अंतर्गत बिजवाड़ा गाँव से बारह वर्ष की नाजुक उम्र में माता-पिता और भाई-बहन के साथ बालक मुरारीलाल कन्हान इसी आशा और स्वप्न के साथ पहुँचे थे कि गरीबी के अभिशाप से उन्हें और उनके कुटुंब को इस औद्योगिक नगरी में मुक्ति मिलेगी. यहाँ पहुँचकर उन्होंने विकास माध्यमिक शाला में प्रवेश ले लिया. पूरा परिवार एक झोपड़ी में रहता था. बालक मुरारीलाल जानते थे कि शिक्षा के जरिए आसानी से गरीबी को पराजित किया जा सकता है लेकिन सुविधाहीन परिस्थितियों में आसान से आसान सूत्र भी कठिन बन जाते हैं. हालात ने बाध्य किया और बालक मुरारी की शिक्षा कक्षा सातवीं के आगे बढ़ पाई. घर की आर्थिक स्थितियों से जूझने के लिए परिवार के हर सदस्य को परिश्रम करना था, मुरारीलाल पीछे नहीं रहे. उन्होंने सुंदर राय के कारखाने में पचहत्तर पैसे प्रतिदिन के हिसाब से काम करना शुरु किया.

एक दिहाड़ी मजदूर के रुप में काम करते हुए कब किशोरवय मुरारी, युवा मुरारी हो गए पता ही नहीं चला. परिश्रम और लगन का नतीजा यह हुआ कि उनकी देहयष्टि अठारह की उम्र में खूब खिल उठी. अपने पुत्र के यौवन को देखकर उनके माता-पिता ने 19 अप्रैल 1970 को महज अठारह वर्ष की आयु में उनका विवाह कर दिया. इस बीच कारखाने में उनका काम बोलने लगा था. मालिकान ने उनके काम से प्रभावित होकर रोजी 6 रुपए प्रतिदिन कर दी. मुरारीलाल नागरे की गृहस्थी की गाड़ी ठीक-ठाक तरीके से चल पड़ी  थी. जीवन में कुछ राहत बन ही रही थी कि एक रोज कारखाने में आग लग गई, जिसकी आँच वहाँ काम करने वाले हरेक मजदूर के जीवन पर पड़ी. मुरारीलाल का गृहस्थ जीवन भी प्रभावित हुआ.

राहत की बात उस समय बस इतनी ही हुई कि तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने कन्हान के धरमनगर और पिपरी क्षेत्र में क्रमशः 16 और 14 लोगों को एक कमरे का घर बनाकर उसका पट्टा दिया. लाभान्वित होने वालों में से एक मुरारीलाल भी थे. उधर आग लगने की  घटना से उबरकर मालिक ने फिर से कारखाना शुरु किया. मुरारीलाल नागरे का ठहरा हुआ जीवन फिर से गतिमान हो गया. लेकिन यह गति बहुत दिनों तक बनी रह पाई. कारखाने का माल समीपस्थ खंडेलवाल कंपनी में जाया करता था लेकिन खंडेलवाल कंपनी में मजदूरों ने हड़ताल कर दी, हड़ताल खत्म करने के लिए खंडेलवाल कंपनी के मालिक ने मजदूरों पर लाठीचार्ज कराया, जिससे बात और बिगड़ गई, मजद्रूरों ने कंपनी में लंबी हड़ताल कर दी, नतीजतन कंपनी में सुंदर राय के कारखाने का माल जाना बंद हो गया. मजबूरन मुरारीलाल भी कारखाने के अन्य मजद्रूरों के साथ बेरोजगार हो गए.

हालात फिर से प्रतिकूल थे लेकिन हाथ पर हाथ रखकर तो बैठा नहीं जा सकता था, इसलिए मुरारीलाल ने 25 सौ रुपए का इंतजाम किया और एक हाथ ठेला खरीद लिया. उस ठेले पर वह कामठी से लाकर केले बेचने लगे. वह रोज कामठी जाते, वहाँ से केला लाकर कन्हान में बेचते, इसमें मेहनत बहुत होती थी लेकिन हाथ में आमदनी कुछ भी नहीं बचती थी. एक बुजुर्ग ने मुरारीलाल को सलाह दी कि हाथ ठेला पास है तो क्यों नहीं वह सब्जी बिक्री का काम करते! उन बुजुर्ग की सलाह को शिरोधार्य कर मुरारीलाल नागरे ने सब्जी बिक्री का काम शुरु किया. नागपुर के कुछ व्यापारी उन दिनों कन्हान में लाकर सस्ते दाम में सब्जी बेचते थे, जिससे स्थानीय विक्रेताओं को भारी नुकसान होने लगा. मजबूरन मुरारीलाल को सब्जी बेचने के काम से भी खुद को विरक्त करना पड़ा.

नियति ने उनके लिए जो तय कर रखा था,अंततः वह उस राह पर चले, उन्होंने घर में ही छोटी सी किराणा दूकान शुरु की. धनाभाव के चलते दुकान में बहुत कम माल भर पाते थे, इस बीच मदनानी सेठ, जिनके यहाँ से वह थोक में किराणा सामान लाते थे, ने उनके परिश्रम और ईमानदारी को देखते हुए उधार में माल देना शुरु किया. बेटे अमर नागरे ने दूकान चलाने में खूब मदद की. 1992 में कन्हान के ही विवेकानंद नगर में उन्होंने एक और किराणा दुकान शुरु की. आज वह दुकान उनके बेटे अमर संचालित करते हैं. अमर में भी पिता की ही तरह लगन, मेहनत और ईमानदारी के गुण कूट-कूटकर भरे हुए हैं. इन गुणों के साथ अपने मानवीय स्वभाव के चलते अमर कन्हान वासियों में खूब लोकप्रिय हैं.

जाने कितने दिन भूखे रहकर, प्रतिकूल स्थितियों का सामना करते हुए मुरारीलाल नागरे ने हिम्मत छोड़ी, हौंसला खोया. लगातार परिश्रम करते रहे. चार बेटों और दोनों बेटियों को अच्छी तालीम दी. अच्छे संस्कार दिए. 72 की उम्र में आज भी वह प्रतिदिन साइकिल से ही चलते हैं. दुकान का सामान लाना हो कि किसी और काम से जाना हो, साइकिल ही उनकी प्रिय सवारी है. आज भी सुबह 4 बजे से उन्की दिनचर्या शुरु होती है और फिर पूरे दिन वह सतत सक्रिय रहते हुए अपनी उम्र को सदा अपने पीछे किए रहते हैं. उनसे मिलने पर उनकी विनम्रता और सादगी से आप स्वयं जान जाएँगे कि अपने संघर्षमय अतीत को वह पल भर के लिए भी अपनी स्मृतियों से ओझल नहीं होने देते   मुरारीलाल नागरे के जीवन संघर्ष हमें यही सबक देते हैं कि यदि हम विपरीत परिस्थितियों में हिम्मत और हौंसला बनाए रखें, अपने मन को भटकने दें, ईमानदारी और लगन से परिश्रम करते रहें तो नियति हमें स्थायी सफलता तक अवश्य पहुँचाती है. श्री नागरे के परिश्रम को हमारा सलाम!

इसी कहानी को आप अंक डाउनलोड कर भी पढ़ सकते हैं लिंक  है

इस अंक में और पढ़िए 

 

 

मिशन मन : हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है – 1  

पहली बात : क्या हम इतने लाचार हैं?

फाल्गुन विश्व विशेष : हिन्दी भाषा की उत्पत्ति का संक्षिप्त इतिहास

विशेष : ग़ज़लकार ओम शंकर असर से मिलिए

हिन्दी भाषा का इतिहास और कालखण्ड

कन्हानवारी में ’अथक मेहनत की मिसाल मुरारीलाल नागरे

आखिरी पृष्ठ / स्विट्ज़रलैंड कासमय बैंक

 अंक डाउनलोड लिंक 


क्या आपने कभी सोचा है कि जो आप बोलते हैं? वह शब्द कितनी प्रक्रियाओं से गुजरकर आपके कंठ से फूटता है या आपकी जुबान से अभिव्यक्त होता है?

कल्पना कीजिए कि आप एक सुनसान जगह पर हैं. दूर-दूर तक आपको कोई दिखाई नहीं देता. सन्नाटा पसरा हुआ है और जहाँ तक निगाह जाती है वहाँ तक आपके अलावा कोई नहीं! इस स्थिति में भी जब तक आपके मन में कोई भाव नहीं उठते, तब तक तो ठीक है, लेकिन जैसे ही किसी भी तरह के भाव ने आपके मन में जन्म लिया, जैसे कि आप भयभीत हुए या आपको प्यास लगी या कुछ खाने की इच्छा हुई या फिर उस जगह के सन्नाटे ने आपको वहाँ से जल्दी से जल्दी निकल जाने के लिए व्यग्र किया, तो सबसे पहला काम आप क्या करेंगे?

आप कुछ बोलने की कोशिश करेंगे. आप किसी से बात करना चाहेंगे. आप चाहेंगे कि कोई मिले जिससे आप बात कर सके, उससे पानी, भोजन, वहाँ से निकलने का रास्ता, जो कुछ भी भाव आपके मन में उपजा है, बोलकर, पूछकर, मांगकर, बताकर, उस भाव का निदान-समाधान कर सकें. होगा ऐसा?

और तब अगर कोई व्यक्ति दिखाई दे जाए तो आप उससे बात करते समय कितना संभल-संभल कर बोलेंगे, है , आप पूरी कोशिश करेंगे कि वह जो व्यक्ति मिला है, बड़ी मुश्किल से दिखा है, वह हमारे बोले गए किसी भी शब्द से नाराज हो जाए, बिगड़ जाए, हम जो चाहते हैं, जल्दी से जल्दी वह उसका समाधान कर दे, इसलिए इस तरह के शब्दों का उच्चार करेंगे कि मिला, दिखाई दिया व्यक्ति द्रवित होकर हमारी बेचैनी, भूख, प्यास, भय आदि को समझ ले और उसका यथोचित समाधान कर दे.

 आगे पढ़ने के लिए अंक डाउनलोड करें, लिंक पर क्लिक करें... 


क्या हम सचमुच इतने लाचार हैं

धीरे-धीरे साल भर हो गया, जब से आम आदमी के जिन्दगी को बेजार और बेकार करने कासरकारी दुष्चक्रतूफानी वेग से जारी है. लगता है हमारे देश की केंद्र सरकार के साथ राज्यों की सरकारों ने भीआओ कुछ तूफानी करते हैंका नारा आत्मसात कर लिया है. दिक्कत यही है कि इससरकारी तूफान’ में सिर्फ आम आदमी तबाह हो रहा है. क्या सरकार या सरकारों ने आम आदमी को खत्म करने का यह तरीका अख्तियार किया है? अब अगर आम आदमी ही नहीं रहेगा तो इस देश के खास लोग जिएंगे कैसे? क्योंकि खास को खास सिर्फ आम आदमी बनाता है, एक खास तो दूसरे खास को घास भी नहीं डालता

कोरोना के नाम पर डराने और धमकाने का क्रम शासकीय स्तर पर जारी है. बीमारियों के उद्भव, विकास और उसके निपटान के लिए आज अनेक तौर-तरीके दुनिया में मौजूद हैं, आधुनिक प्रयोगशालाएं, अत्याधुनिक तंत्र-तकनीक और बुद्धिमान से बुद्धिमान वैज्ञानिक, शोधकर्ताओं की फौज पूरी दुनिया में विद्यमान है, हम आज यह जान लेने का दावा कर रहे हैं कि धरती कैसे बनी, प्रकृति कैसे बनी, ईश्वर कैसे बना, कुदरत कैसे बना, लेकिन यह मालूम नहीं कर पा रहे हैं कि कोरोना नामक पिद्दी वायरस दुनिया भर के मनुष्यों के लिए जानलेवा कैसे बन गया है!

दिक्कत तब होती है जब विद्वान् और बुद्धिजीवी गण इसी बात को बेहद सकारात्मक ढंग से प्रस्तुत करते हैं, ’देखिए इन्सान ने चाहे कितनी ही तरक्की और उन्नति कर ली हो, एक पिद्दी से वायरस ने इन्सान को जता दिया कि बच्चू तुम किसी काबिल नहीं हो…’

 आगे पढ़ने के लिए अंक डाउनलोड करें, लिंक पर क्लिक करें...


हिन्दी भाषा की उत्पत्ति का संक्षिप्त इतिहास... 

पं. कामताप्रसाद गुरु की कलम से... 

हिन्दी की उत्पत्ति

(1) आदिम भाषा

भिन्न-भिन्न देशों में रहने वाली मनुष्य जातियों के आकार, स्वभाव आदि की परस्पर तुलना करने से ज्ञात होता है कि उनमें आश्चर्यजनक और अद्‌भुत समानता है. विदित होता है कि सृष्टि के आदि में सब मनुष्यों के पूर्वज एक ही थे. वे एक ही स्थान पर रहते थे और एक ही आचार-व्यवहार करते थे. इसी प्रकार, यदि भिन्न-भिन्न भाषाओं के मुख्य-मुख्य नियमों और शब्दों की परस्पर तुलना की जाय तो उनमें भी विचित्र सादृश्य दिखाई देता है. उससे यह प्रकट होता है कि हम सबके पूर्वज पहले एक ही भाषा बोलते थे. जिस प्रकार आदिम स्थान से पृथक् होकर लोग जहाँ-तहाँ चले गए और भिन्न-भिन्न जातियों में विभक्त हो गए; उसी प्रकार उस आदिम भाषा से भी कितनी ही भिन्न भिन्न भाषाएँ उत्पन्न हो गईं.

कुछ विद्वानों का अनुमान है कि मनुष्य पहले-पहल एशिया खंड के मध्य भाग में रहता था. जैसे-जैसे उसकी संतति बढ़ती गई, क्रम-क्रम से लोग अपना मूल स्थान छोड़ अन्य देशों में जा बसे. इसी प्रकार यह भी एक अनुमान है कि नाना प्रकार की भाषा एक ही मूल भाषा से निकलती है. पाश्चात्य विद्वान् पहले यह समझते थे कि इब्रानी भाषा से, जिसमें यहूदी लोगों के धर्मग्रंथ हैं, सब भाषाएँ निकली हैं, परंतु उन्हें संस्कृत का ज्ञान होने और शब्दों के मूल रूपों का पता लगने से यह ज्ञात हुआ है कि एक ऐसी आदिम भाषा से, जिसका पता लगना कठिन है, संसार की सब भाषाएँ निकली हैं और वे तीन भागों में बांटी जा सकती हैं -

1 आर्यभाषाएँ इस भाग में-संस्कृत, प्राकृत (और उससे निकली-हुई भारतवर्ष की प्रचलित आर्यभाषाएँ), अँगरेजी, फारसी, यूनानी, लैटिन आदि भाषाएँ

2 शामी भाषाएँ इस भाग में इब्रानी, अरबी और हब्शी भाषाएँ हैं.

3 तूरानी भाषाएँ इस भाग में मुगली, चीनी, जापानी, द्राविड़ी (दक्षिणी हिंदुस्तान की) भाषाएँ और तुर्की आदि भाषाएँ हैं.

(2) आर्यभाषाएँ

इस बात का अभी तक ठीक-ठीक निर्णय नहीं हुआ कि संपूर्ण आर्यभाषाएँ फारसी, यूनानी, लैटिन, रूसी आदि वैदिक संस्कृत से निकली हैं अथवा और-और भाषाओं के साथ-साथ यह पिछली भाषा भी आदिम आर्यभाषा से निकली है. जो भी हो यह बात अवश्य निश्चित हुई है कि आर्य लोग, जिनके नाम से उनकी भाषाएँ प्रख्यात हैं, आदिम स्थान से इधर-उधर गये और भिन्न-भिन्न देशों में उन्होंने अपनी भाषाओं की नींव डाली. जो लोग पश्चिम को गए उनसे ग्रीक, लैटिन, अँगरेजी आदि आर्यभाषाएँ बोलने वाली जातियों की उत्पत्ति हुई. जो लोग पूर्व को आए उनके दो भाग हो गए. एक भाग फारस को गया और दूसरा हिन्दूकुश को पार कर काबुल की तराई में से होता हुआ हिंदुस्तान पहुँचा. पहले भाग के लोगों ने ईरान में मीडी (मादी) भाषा के द्वारा फारसी को जन्म दिया, और दूसरे भाग के लोगों ने संस्कृत का प्रचार किया, जिससे प्राकृत के द्वारा इस देश की प्रचलित आर्यभाषाएँ निकली हैं. प्राकृत के द्वारा संस्कृत से निकली हुई इन्हीं भाषाओं में से हिन्दी भी है. भिन्न-भिन्न आर्यभाषाओं की समानता दिखाने के लिए कुछ शब्द नीचे दिए जाते हैं

आगे पढ़ने के लिए अंक डाउनलोड करें, लिंक पर क्लिक करें...

इस तालिका से जान पड़ता है कि निकटवर्ती देशों की भाषाओं में अधिक समानता है और दूरवर्ती देशों की भाषाओं में अधिक भिन्नता. यह भिन्नता इस बात की भी सूचक है कि यह भेद वास्तविक नहीं है, और न आदि में था, किंतु वह पीछे से हो गया है.

(3) संस्कृत और प्राकृत

जब आर्य लोग पहले-पहल भारतवर्ष में आए तब उनकी भाषा प्राचीन (वैदिक) संस्कृत थी. इसे देववाणी भी कहते हैं, क्योंकि वेदों की अधिकांश भाषा यही है.

रामायण, महाभारत और कालिदास आदि के काव्य जिस परिमार्जित भाषा में हैं, वह बहुत पीछे की है. अष्टाध्यायी आदि व्याकरणों में 'वैदिक' और 'लौकिक' नामों से दो प्रकार की भाषाओं का उल्लेख पाया जाता है और दोनों के नियमों में बहुत कुछ अंतर है. इन दोनों प्रकार की भाषाओं में विशेषताएँ ये हैं कि एक तो संज्ञा के कारकों की विभक्तियाँ संयोगात्मक हैं; अर्थात् कारकों में भेद करने के लिए शब्दों के अंत में अन्य शब्द नहीं आते; जैसे मनुष्य शब्द का संबंधकारक संस्कृत में मनुष्यस्य' होता है, हिन्दी की तरह 'मनुष्य का' नहीं होता. दूसरे, क्रिया के पुरुष और वचन में भेद करने के लिए पुरुषवाचक सर्वनाम का अर्थ क्रिया के ही रूप से प्रकट होता है, चाहे उसके साथ सर्वनाम लगा हो या न लगा हो; जैसे'गच्छति' का अर्थ स: गच्छति (वह जाता है) होता है. यह संयोगात्मकता वर्तमान हिन्दी के कुछ सर्वनामों में और संभाव्य भविष्यत्‌काल में पाई जाती है; जैसेमुझे, किसे, रहूँ इत्यादि. इस विशेषता की कोई-कोई बात बंगाली (बँगला) भाषा में भी अब तक पाई जाती है; जैसे मनुष्स्येर' (मनुष्य का) संबंधकारक में और कहिलाम' (मैंने कहा) उत्तम पुरुष में. आगे चलकर संस्कृत की यह संयोगात्मकता बदलकर विच्छेदात्मकता हो गई.

अशोक के शिलालेखों और पतंजलि के ग्रंथों से जान पड़ता है कि ईसवी सन् के कोई तीन सौ बरस पहले उत्तरी भारत में एक ऐसी भाषा प्रचलित थी जिसमें भिन्न-भिन्न कई बोलियाँ शामिल थीं. स्त्रियों, बालकों और शूद्रों से आर्यभाषा का उच्चारण ठीक-ठीक न बनने के कारण इस नई भाषा का जन्म हुआ था और इसका नाम 'प्राकृत' पड़ा. 'प्राकृत' शब्द 'प्रकृति' (मूल) शब्द से बना है और उसका अर्थ 'स्वाभाविक' या 'गँवारी' है. वेदों में गाथा नाम से जो छन्द पाए जाते हैं, उनकी भाषा पुरानी संस्कृत से कुछ भिन्न है, जिससे जान पड़ता है कि वेदों के समय में भी प्राकृत भाषा थी. सुविधा के लिए वैदिक काल की इस प्राकृत को हम पहली प्राकृत कहेंगे और ऊपर जिस प्राकृत का उल्लेख हुआ है उसे दूसरी प्राकृत. पहली प्राकृत ही ने कई शताब्दियों के पीछे दूसरी प्राकृत का रूप धारण किया. प्राकृत का जो सबसे पुराना व्याकरण मिलता है; वह वररुचि का बनाया है. वररुचि ईसवी सन् के पूर्व पहली सदी में हो गए हैं. वैदिक काल के विद्वानों ने देववाणी को प्राकृत भाषा की भ्रष्टता से बचाने के लिए उसका संस्कार करके व्याकरण के नियमों से उसे नियन्त्रित कर दिया. इस परिमार्जित भाषा का नाम 'संस्कृत' हुआ, जिसका अर्थ 'सुधारा हुआ' अथवा 'बनावटी' है. यह संस्कृत भी पहली प्राकृत की किसी शाखा से शुद्ध होकर उत्पन्न हुई है. संस्कृत को नियमित करने के लिए कितने ही व्याकरण बने जिसमें पाणिनि का व्याकरण सबसे अधिक प्रसिद्ध और प्रचलित है. विद्वान् लोग पाणिनि का समय ई. सन् के पूर्व सातवीं सदी में स्थिर करते हैं और संस्कृत को उनसे सौ वर्ष पीछे तक प्रचलित मानते हैं.

पहली प्राकृत में संस्कृत की संयोगात्मकता तो वैसी ही थी, परंतु, व्यंजनों के अधिक प्रयोग के कारण उसकी कर्णकटुता बहुत बढ़ गई थी. पहली और दूसरी प्राकृत में अन्य भेदों के सिवा यह भी एक भेद हो गया था कि कर्णकटु व्यंजनों के स्थान पर स्वरों की मधुरता आ गई; जैसे-रघु का रहु' और 'जीवलोक' का जीअलोअ' हो गया.

बौद्ध धर्म के प्रचार से दूसरी प्राकृत की बड़ी उन्नति हुई. आजकल यह दूसरी प्राकृत पाली भाषा के नाम से प्रसिद्ध है. पाली में प्राकृत का जो रूप था उसका विकास धीरे-धीरे होता गया और कुछ समय बाद उसकी तीन शाखाएँ हो गईं; अर्थात् शौरसेनी, मागधी और महाराष्ट्री. शौरसेनी भाषा बहुधा उस प्रांत में बोली जाती थी, जिसे आजकल उत्तर प्रदेश कहते हैं. मागधी मगध देश और बिहार की भाषा थी तथा महाराष्ट्री का प्रचार दक्षिण के बंबई, बरार आदि प्रांतों में था. बिहार और उत्तर प्रदेश के मध्य भाग में एक और भाषा थी जिसको अर्धमागधी कहते थे. वह शौरसेनी और मागधी के मेल से बनी थी. कहते हैं, जैन तीर्थंकर महावीर स्वामी इसी अर्धमागधी में जैन धर्म का उपदेश देते थे. पुराने जैन ग्रंथ भी इसी भाषा में हैं. बौद्ध और जैन धर्म के संस्थापकों ने अपने धर्मों के सिद्धांत सर्वप्रिय बनाने के लिए अपने ग्रंथ बोलचाल की भाषा अर्थात् प्राकृत में रचे थे. फिर काव्यों और नाटकों में भी उसका प्रयोग हुआ.

थोड़े दिनों के पीछे दूसरी प्राकृत में भी परिवर्तन हो गया. लिखित प्राकृत का विकास रुक गया, परंतु कथित प्राकृत विकसित अर्थात् परिवर्तित होती गई. लिखित प्राकृत के आचार्यों ने इसी विकासपूर्ण भाषा का उल्लेख अपभ्रंश नाम से किया है. 'अपभ्रंश' शब्द का अर्थ बिगड़ी हुई भाषा' है. ये अपभ्रंश भाषाएँ भिन्न-भिन्न प्रांतों में भिन्न-भिन्न प्रकार की थीं. इसके प्रचार के समय का ठीक-ठीक पता नहीं लगता; पर जो प्रमाण मिलते हैं, उनसे जाना जाता है कि ईसवी सन् के ग्यारहवें शतक तक अपभ्रंश भाषा में कविता होती थी. प्राकृत के अंतिम वैयाकरण हेमचंद्र ने, जो बारहवें शतक में हुए हैं, अपने व्याकरण में अपभ्रंश का उल्लेख किया है. अपभ्रंशों में संस्कृत और दोनों प्राकृतों से भेद हो गया, उनकी संयोगात्मकता जाती रही और उनमें विच्छेदात्मकता आ गई; अर्थात् कारकों का अर्थ प्रकट करने के लिए शब्दों में विभक्तियों के बदले अन्य शब्द मिलने और क्रिया के रूप में सर्वनामों का बोध होना रुक गया.

प्रत्येक प्राकृत के अपभ्रंश पृथक्-पृथक् थे और वे भिन्न-भिन्न प्रांतों में प्रचलित थे. भारत की प्रचलित आर्यभाषाएँ न संस्कृत से निकली हैं और न प्राकृत से; किंतु अपभ्रंशों से. लिखित साहित्य में बहुधा एक ही अपभ्रंश भाषा का नमूना मिलता है जिसे नागर अपभ्रंश कहते हैं. इसका प्रचार बहुत करके पश्चिम भारत में था. इस अपभ्रंश में कई बोलियाँ शामिल थीं जो भारत के उत्तर की तरफ प्राय: समग्र पश्चिमी भाग में बोली जाती थीं. हमारी हिन्दी भाषा दो अपभ्रंशों के मेल से बनी हैएक नागर अपभ्रंश, जिससे पश्चिमी हिन्दी और पंजाबी निकली है; दूसरा अर्धमागधी का अपभ्रंश जिससे पूर्वी हिन्दी निकली है और जो अवध, बघेलखंड और छत्तीसगढ़ में बोली जाती है.

नीचे लिखे वृक्ष से हिन्दी भाषा की उत्पत्ति ठीक-ठीक प्रकट हो जायगी

आगे पढ़ने के लिए अंक डाउनलोड करें, लिंक पर क्लिक करें...

 (4) हिन्दी

प्राकृत भाषाएँ ईसवी सन् के कोई आठ-नौ सौ वर्ष तक और अपभ्रंश भाषाएँ ग्यारहवें शतक तक प्रचलित थीं. हेमचंद्र के प्राकृत व्याकरण में हिन्दी की प्राचीन कविता के उदाहरण' पाए जाते हैं. जिस भाषा में मूल 'पृथ्वीराजरासो' लिखा गया षटभाषा'' का मेल है. इस 'काव्य' में हिन्दी का पुराना रूप पाया जाता है.' इन उदाहरणों से जान पड़ता है कि हमारी वर्तमान हिन्दी का विकास ईसवी सन् की बारहवीं सदी से हुआ है. 'शिवसिंह सरोज' में पुष्य नाम के एक कवि का उल्लेख है जो भाखा की जड़' कहा गया है, और जिसका समय सन् 713 ई. दिया गया है. पर न तो इस कवि की कोई रचना मिली है और न यह अनुमान हो सकता है कि उस समय हिन्दी भाषा प्राकृत अथवा अपभ्रंश से पृथक् हो गई थी. बारहवें शतक में भी यह भाषा अधबनी अवस्था में थी, तथापि अरबी, फारसी और तुर्की शब्दों का प्रचार मुसलमानों के भारत प्रवेश के समय से होने लगा था. यह प्रचार यहाँ तक बढ़ा कि पीछे से भाषा के लक्षण में 'पारसी' भी रखी गई.'

विद्वान् लोग हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास को नीचे लिखे चार भागों में बाँटते हैं

1 अ. आदि हिन्दी  यह उस हिन्दी का नमूना है जो अपभ्रंश से पृथक् होकर साहित्यकार्य के लिए बन रही थी. यह भाषा दो कालों में बांटी जा सकती है(1) वीरकाल १२००-१४०० और (2) धर्मकाल १४४०-१६००.

वीरकाल में यह भाषा पूर्ण रूप से विकसित न हुई थी और इसकी कविता का प्रचार अधिकतर राजपूताने में था. इसके बाहर के साहित्य की कोई विशेष उन्नति नहीं हुई. उसी समय महोबे में जगनिक कवि हुआ जिसके किसी ग्रंथ के आधार पर 'आल्हा' की रचना हुई. आजकल इस काव्य की मूल भाषा का ठीक पता नहीं लग सकता, क्योंकि भिन्न-भिन्न प्रांतों के लेखकों और गवैयों ने इसे अपनी बोलियों का रूप दे दिया है. विद्वानों का अनुमान है कि इसकी मूल भाषा बुंदेलखंडी थी और यह बात कवि की जन्मभूमि बुंदेलखंड में होने से पुष्ट होती है.

प्राचीन हिन्दी का समय बतानेवाली दूसरी रचना भक्तों के साहित्य में पाई जाती है, जिसका समय अनुमान से 1400-1600 है. इस काल के जिन-जिन कवियों के ग्रंथ आजकल लोगों में प्रचलित हैं उनमें बहुतेरे वैष्णव थे और उन्हीं के मार्ग-प्रदर्शन से पुरानी हिन्दी के उस रूप में, जिसे ब्रजभाषा कहते हैं; कविता रची गई. वैष्णव सिद्धांत के प्रचार का आरंभ रामानुज से माना जाता है जो दक्षिण के रहने वाले थे और अनुमान से बारहवीं सदी में हुए हैं. उत्तर भारत में यह धर्म रामानंद स्वामी ने फैलाया, जो इस संप्रदाय के प्रचारक थे. इनका समय सन् 1400 ईसवी के लगभग माना जाता है. इनकी लिखी कुछ कविताएँ सिक्खों के आदिग्रंथ में मिलती हैं और इनके रचे हुए भजन पूर्व में मिथिला तक प्रचलित हैं. रामानंद के चेलों में कबीर थे जिनका समय 1512 ईसवी के लगभग है. उन्होंने कई ग्रंथ लिखे हैं जिनमें 'साखी', 'शब्द', रेख्ता' और 'बीजक' अधिक प्रसिद्ध हैं. उनकी भाषा में ब्रजभाषा और हिन्दी के उस रूपांतर का मेल है, जिसे लल्लू जी लाल ने (सन् 18०3 में) खड़ीबोली' नाम दिया है. कबीर ने जो कुछ लिखा है; वह धर्म-सुधारक की दृष्टि से लिखा है, लेखक की दृष्टि से नहीं. इसलिए उनकी भाषा साधारण और सहज है. लगभग इसी समय मीराबाई हुईं, जिन्होंने कृष्ण की भक्ति में बहुत सी कविताएँ कीं. इनकी भाषा कहीं मेवाड़ी, और कहीं ब्रजभाषा है. इन्होंने 'राग गोविंद की टीका' आदि ग्रंथ लिखे. सन् 1469 ई. से 1538 तक बाबा नानक का समय है. ये नानकपंथी सम्प्रदाय के प्रचारक और 'आदिग्रंथ' लेखक हैं. इस ग्रंथ की भाषा पुरानी पंजाबी होने के बदले पुरानी हिन्दी है. शेरशाह १५४० के आश्रय में मलिक मुहम्मद जायसी ने पद्यावत' लिखी जिसमें सुन्तान अलाउद्दीन के चित्तौर का किला लेने पर वहाँ के राजा रतनसेन की रानी पद्यावती के आत्मघात की ऐतिहासिक कथा है'. इस पुस्तक की भाषा अवधी है.

वैष्णव धर्म का एक और भेद है जिसमें लोग श्रीकृष्ण को अपना इष्टदेव मानते हैं. इस संप्रदाय के संस्थापक वल्लभ स्वामी थे, जिनके पूर्वज दक्षिण के रहनेवाले थे. वल्लभ स्वामी ने सोलहवीं सदी के आदि में उत्तर भारत में अपने मत का प्रचार किया. इनके आठ शिष्य थे जो 'अष्टछाप' के नाम से प्रसिद्ध हैं. ये आठों कवि ब्रज में रहते थे और ब्रजभाषा में कविता करते थे. इनमें सूरदास मुख्य हैं. जिनका समय सन् 155० ई. के लगभग है. कहते हैं, इन्होंने सवा लाख पस् लिखे हैं जिनका संग्रह 'सूरसागर' नामक ग्रंथ में है. इस पंथ के चौरासी गुरुओं का वर्णन 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' नामक ग्रंथ में पाया जाता है. जो ब्रजभाषा के गद्य में लिखा गया है; पर इस ग्रंथ का समय निश्चित नहीं है.

अकबर (१५५६-१६०५ ई.) के समय में ब्रजभाषा की कविता की अच्छी उन्नति हुई. अकबर स्वयं ब्रजभाषा में कविता करते थे और उनके दरबार में हिंदू कवियों के समान रहीम, फैजी फहीम आदि मुसलमान कवि भी इस भाषा में रचना करते थे. हिंदू कवियों में टोडरमल, बीरबल, नरहरि, हरिनाथ, करनेश और गंग आदि अधिक प्रसिद्ध थे.

1 ब. मध्य हिन्दी यह हिन्दी कविता के सत्ययुग का नमूना है जो अनुमान से सन् 1600 से लेकर 1800 ई. तक रहा. इस काल में केवल कविता और भाषा ही की उन्नति नहीं हुई वरन् साहित्य विषय के भी अनेक उत्तम और उपयोगी ग्रंथ लिखे गए. मध्य हिन्दी के कवियों में सबसे प्रसिद्ध गुसाईं तुलसीदास जी हुए; जिनका समय सन् 1573 से 1624 ई. तक है. उन्होंने हिन्दी में एक महाकाव्य लिखकर भाषा का गौरव बढ़ाया और सर्वसाधारण में वैष्णव धर्म का प्रचार किया. राम के अनन्य भक्त होने पर भी गोसाईं जी ने शिव और राम में भेद नहीं माना और मत मतान्तर का विवाद नहीं बढ़ाया. वैराग्य वृत्ति के कारण उन्होंने श्रीकृष्ण की भक्ति और लीलाओं के विषय में बहुत नहीं लिखा, तथापि 'कृष्ण गीतावली में इन विषयों पर यथेष्ट और मनोहर रचना की है.

तुलसीदास ने ऐसे समय में रामायण की रचना की जब मुगल राज्य दृढ़ हो रहा था और हिंदू समाज के बंधन अनीति के कारण ढीले हो रहे थे. मनुष्य के मानसिक विकारों का जैसा अच्छा चित्र तुलसीदास ने खींचा है, वैसा और कोई नहीं खींच सका.

रामायण की भाषा अवधी है; पर वह बैसवाड़ी से विशेष मिलती-जुलती है. गोसाईं जी के और ग्रंथों में अधिकांश ब्रजभाषा है.

इस काल के दूसरे प्रसिद्ध कवि केशवदास, बिहारीलाल, भूषण, मतिराम और नाभादास हैं.

केशवदास प्रथम कवि हैं जिन्होंने साहित्य विषयक ग्रंथ रचे. इस विषय के इनके ग्रंथ 'कविप्रिया', 'रसिकप्रिया' और रामालकृतमजरी' हैं. 'रामचंद्रिका' और 'विज्ञानगीता' भी इनके प्रसिद्ध ग्रंथ हैं. इनकी भाषा में संस्कृत शब्दों की बहुतायत है. इनकी योग्यता की तुलना सूरदास और तुलसीदास से की जाती है. इनका मरणकाल अनुमान से सन् 1612 ईसवी है. बिहारीलाल ने 1650 ईसवी के लगभग 'सतसई' समाप्त की. इस ग्रंथरत्न में काव्य के प्राय: सब गुण विद्यमान हैं. इसकी भाषा शुद्ध ब्रजभाषा है. 'बिहारी सतसई' पर कई कवियों ने टीकाएँ लिखी हैं. भूषण ने 1671 ई. में शिवराजभूषण' बनाया और कई अन्य ग्रंथ लिखे. इनके ग्रंथों में देशभक्ति और धर्माभिमान खूब दिखाई देता है. इनकी कुछ कविताएँ खड़ी बोली में भी हैं और अधिकांश कविताएँ वीर रस से भरी हुई हैं. चिंतामणि और मतिराम भूषण के भाई थे, जो भाषासाहित्य के आचार्य माने जाते हैं. नाभादास जाति के डोम थे और तुलसीदास के समकालीन थे. इन्होंने ब्रजभाषा में 'भक्तमाल' नामक पुस्तक लिखी जिसमें अनेक वैष्णव भक्तों का संक्षिप्त वर्णन है.

इस काल के उत्तरार्ध १७..१८०० ईसवी) में राज्यक्रांति के कारण कविता की विशेष उन्नति नहीं हुई. इस काल के प्रसिद्ध कवि प्रियादास, कृष्णकवि, भिखारीदास, ब्रजवासीदास, सूरति मिश्र आदि हैं. प्रियादास ने सन् 1712 ईसवी में 'भक्तमाल' पर एक (पद्य) टीका लिखी. कृष्णकवि ने 'बिहारी सतसई' पर सन् 1720 के लगभग एक टीका रची. भिखारीदास सन् 1723 के लगभग हुए और साहित्य के अच्छे कवि समझे जाते हैं. इनके प्रसिद्ध ग्रंथ छंदोsर्णव' और काव्यनिर्णय' हैं. ब्रजवासीदास ने सन् 1770 ई. में 'ब्रजविलास' लिखा, जो विशेष लोकप्रिय है. सूरति मिश्र ने इसी समय में ब्रजभाषा के गद्य में 'बैताल पचीसी' नामक एक ग्रंथ लिखा. यही कवि गद्य के प्रथम लेखक हैं.

1 स. आधुनिक हिन्दी यह काल सन् 1800 से 1900 ईसवी तक है. इसमें हिन्दी गद्य की उत्पत्ति और उन्नति हुई. अँगरेजी राज्य की स्थापना और छापे के प्रचार से इस शताब्दी में गद्य और पद्य की अनेक पुस्तकें बनीं और छपीं. साहित्य के सिवा इतिहास, भूगोल, व्याकरण, पदार्थविज्ञान और धर्म पर इस काल में कई पुस्तकें लिखी गईं. सन् 1857 ई. के विद्रोह के पीछे देश में शान्तिस्थापना होने पर समाचार पत्र, मासिक पत्र, नाटक, उपन्यास और समालोचना का आरंभ हुआ. हिन्दी की उन्नति का एक विशेष चिह्न इस समय यह है कि इसमें खड़ी बोली (बोलचाल की भाषा) की कविता लिखी जाती है. इसके साथ ही हिन्दी में संस्कृत शब्दों का निरंकुश प्रयोग भी बढ़ता जाता है. इस काल में शिक्षा के प्रचार से हिन्दी की विशेष उन्नति हुई. पादरी गिलक्राइस्ट की प्रेरणा से लल्लू जी लाल ने सन् 18०4 ई. में 'प्रेम-सागर' लिखा जो आधुनिक हिन्दी गद्य का प्रथम ग्रंथ है. इनके बनाए और प्रसिद्ध ग्रंथ' 'राजनीति' (ब्रजभाषा के गद्य में), सभाविलास', लालचन्द्रिका' (बिहारी सतसई पर टीका), 'सिंहासन पचीसी' हैं. इस काल के प्रसिद्ध कवि पद्याकर १८५, श्वाल १८५, पजनेश १८८, रघुराजसिंह १८४४, दीनदयालगिरि १४५, और हरिश्चंद्र १९४० हें.

गद्यलेखकों में लल्लू जी लाल के पश्चात् पादरी लोगों ने कई विषयों की पुस्तकें अँगरेजी से अनुवाद कराकर छपवाईं. इसी समय से हिन्दी में ईसाई धर्म की पुस्तकों का छपना आरंभ हुआ. शिक्षा विभाग के लेखकों में पं. श्रीलाल, पं. वंशीधर वाजपेयी और राजा शिवप्रसाद हैं. शिवप्रसाद ऐसी हिन्दी के पक्षपाती थे जिसे हिंदू-मुसलमान दोनों समझ सकें. इनकी रचना प्राय: उर्दू ढंग की होती थी. आर्यसमाज की स्थापना से साधारण लोगों में वैदिक विषयों की चर्चा और धर्मसंबंधी हिन्दी की अच्छी उन्नति हुई. काशी की नागरीप्रचारिणी सभा ने हिन्दी की विशेष उन्नति की है. उसने गत अर्धशताब्दी में अनेक विषयों के न्यूनाधिक सौ उत्तम ग्रंथ प्रकाशित किए हैं जिनमें सर्वांगपूर्ण हिन्दी कोश और हिन्दी व्याकरण मुख्य है. उसने प्राचीन हस्तलिखित पुस्तकों की नियमबद्ध खोज कराकर अनेक दुर्लभ ग्रंथों का भी प्रकाशन किया है. प्रयाग की हिन्दी साहित्य सम्मेलन नामक संस्था हिन्दी की उच्च परीक्षाओं का प्रबंध और संपूर्ण देश में उसका प्रचार राष्ट्रभाषा के रूप में कर रही है. उसने कई एक उपयोगी पुस्तकें भी प्रकाशित की हैं.

इस काल के और प्रसिद्ध लेखक राजा लक्ष्मणसिंह, पं. अम्बिकादत्त व्यास, राजा शिवप्रसाद और भारतेंदु हरिश्चंद्र हैं. इन सब में भारतेंदु जी का आसन ऊँचा है. उन्होंने केवल 35 वर्ष की आयु में कई विषयों की अनेक पुस्तकें लिखकर हिन्दी का उपकार किया और भावी लेखकों को अपनी मातृभाषा की उन्नति का मार्ग बताया. भारतेंदु के पश्चात् वर्तमान काल में सबसे प्रसिद्ध लेखक और कवि पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी, पं. श्रीधर पाठक, पं. अयोध्यासिंह उपाध्याय और बाबू मैथिलीशरण हैं, जिन्होंने उच्च कोटि के अनेक ग्रंथ लिखकर हिन्दी भाषा और साहित्य का गौरव बढ़ाया है. आधुनिक काल के अन्य प्रसिद्ध लेखक प्रेमचंद, पं. सुमित्रानंदन पंत, बाबू जयशंकर प्रसाद, पं. सूर्यकांत त्रिपाठी, पं. माखनलाल चतुर्वेदी, उपेंद्रनाथ अश्क, यशपाल, नंददुलारे वाजपेयी, जैनेंद्रकुमार दिनकर, बच्चन, श्यामसुंदर दास, रामचंद्र शुक्ल और रामचंद्र वर्मा हैं. कवयित्रियों में श्रीमती महादेवी वर्मा और सुभद्राकुमारी चौहान प्रसिद्ध हैं.

 (5) हिन्दी और उर्दू

'हिन्दी' नाम से जो भाषा हिंदुस्तान में प्रसिद्ध और प्रचलित है, उसके नाम, रूप और विस्तार के विषय में विद्वानों का मतभेद है. कई लोगों की राय में हिन्दी और उर्दू एक ही भाषा है और कई लोगों की राय में दोनों अलग-अलग दो बोलियाँ हैं. राजा शिवप्रसाद सदृश महाशयों की युक्ति यह है कि शहरों और पाठशालाओं में हिंदू और मुसलमान कुछ सामाजिक तथा धर्मसंबंधी और वैज्ञानिक शब्दों को छोड्‌कर प्राय: एक ही भाषा में बातचीत करते हैं और एक दूसरे के विचार पूर्णतया समझ लेते हैं. इसके विरुद्ध राजा लक्ष्मण सिंह सदृश विद्वानों का पक्ष यह है कि जिन दो जातियों का धर्म, व्यवहार, विचार, सभ्यता और उद्देश्य एक नहीं है, उनकी भाषा पूर्णतया एक कैसे हो सकती है? जो हो, साधारण लोगों में आज कल हिंदुस्तानियों की भाषा हिन्दी और मुसलमानों की भाषा उर्दू प्रसिद्ध है. भाषा का मुसलमानी रूपांतर केवल हिन्दी में नहीं, वरन् बँगला, गुजराती, आदि भाषाओं में भी पाया जाता है. 'हिन्दी भाषा की उत्पत्ति' नामक पुस्तक के अनुसार हिन्दी और उर्दू हिंदुस्तानी की शाखाएँ हैं, जो पश्चिमी हिन्दी का एक भेद है. इस भाषा का 'हिंदुस्तानी' नाम अँगरेजों का रखा हुआ है और उससे बहुधा उर्दू का बोध होता है. हिंदू लोग इस शब्द को 'हिंदुस्तानी' कहते हैं और इसे बहुधा 'हिन्दी बोलने वाली 'जाति' के अर्थ में प्रयुक्त करते हैं.

हिन्दी कई नामों से प्रसिद्ध है; जैसेभाषा, हिंदवी (हिंदुई), हिन्दी, खड़ी बोली और नागरी. इसी प्रकार मुसलमानों की भाषा के भी कई नाम हैं. वह हिंदुस्तानी, उर्दू रेख्ता और दक्खिनी कहलाती है. इनमें से बहुत से नाम दोनों भाषाओं का यथार्थ रूप निश्चित न होने के कारण दिए गए हैं.

हमारी भाषा का सबसे पुराना नाम केवल ' भाषा' है. महामहोपाध्याय पं. सुधाकर द्विवेदी के अनुसार यह नाम भास्वती की टीका में आया है, जिसका समय संवत् 1485 है. तुलसीदास ने रामायण में ' भाषा' शब्द लिखा है, पर अपने फारसी पंचनामे में 'हिंदवी' शब्द का प्रयोग किया है. बहुधा पुस्तकों के नामों में और टीकाओं में यह शब्द आजकल प्रचलित है; जैसे' भाषा भास्कर, भाषा टीका सहित' इत्यादि. पादरी आदम साहब की लिखी और सन् 1837 में दूसरी बार छपी 'उपदेश कथा' में इस भाषा का नाम 'हिंदवी' लिखा है. इन उदाहरणों से जान पड़ता है कि हमारी भाषा का हिन्दी नाम आधुनिक है. 1 इसके पहले हिंदू लोग इसे ' भाषा' और मुसलमान लोग 'हिंदुई' या 'हिंदवी' कहते थे. लल्लू जी लाल ने प्रेमसागर में (सन् 18०4 में) इस भाषा का नाम खड़ी बोली' 2 लिखा है, जिसे आजकल कुछ लोग न जाने क्यों 'खरी बोली' कहने लगे हैं. आजकल खड़ी बोली' शब्द केवल कविता की भाषा के लिए आता है, यद्यपि गद्य की भाषा भी खड़ी बोली' है. लल्लू जी लाल ने एक जगह अपनी भाषा का नाम रेख्ते की बोली' भी लिखा है. रेख्ता' शब्द कबीर के एक ग्रंथ में भी आया है, पर वहाँ उसका अर्थ ' भाषा' नहीं है किंतु एक प्रकार का 'छंद' है. जान पड़ता है कि फारसी अरबी शब्द मिलाकर भाषा में जो फारसी शब्द रचे गए उनका नाम रेख्ता (अर्थात् मिला हुआ) रखा गया और फिर पीछे से यह शब्द मुसलमानों की कविता की बोली के लिए प्रयुक्त होने लगा. यह भी एक अनुमान है कि मुसलमानों में रेख्ता का प्रचार बढ़ने के कारण हिंदुओं की भाषा का नाम 'हिंदुई' (या हिंदवी) रखा गया. इसी 'हिंदवी' में, जिसे आजकल खड़ी बोली' कहते हैं, कबीर, भूषण, नागरीदास आदि कुछ कवियों ने थोड़ी-बहुत कविता की है; पर अधिकांश हिंदू कवियों ने श्रीकृष्ण की उपासना और भाषा की मधुरता के कारण ब्रजभाषा का ही उपयोग किया है.

आरंभ में हिंदुई और रेख्ता में थोड़ा ही अंतर था. अमीर खुसरो, जिनकी मृत्यु सन् 1325 ई. में हुई, मुसलमानों में सर्वप्रथम और प्रधान कवि माने जाते हैं. उनकी भाषा' से जान पड़ता है कि उस समय तक हिन्दी में मुसलमानी शब्द और फारसी ढंग की रचना की भरमार न हुई थी, और मुसलमान लोग शुद्ध हिन्दी पढ़ते-लिखते थे. जब देहली के बाजार में तुर्क, अफगान और फारसवालों का संपर्क हिंदुओं से होने लगा, और वे लोग हिन्दी शब्दों के बदले अरबी, फारसी के शब्दों को बहुतायत से मिलाने लगे, तब रेख्ता ने दूसरा ही रूप धारण किया, और उसका नाम 'उर्दू पड़ा. 'उर्दू शब्द का अर्थ 'लश्कर' है. शाहजहाँ के समय में उर्दू की बहुत उन्नति हुई, जिससे खड़ी बोली' की उन्नति में बाधा पड़ गई.

हिन्दी और उर्दू मूल में एक ही भाषा हैं. उर्दू हिन्दी का केवल मुसलमानी रूप है. आज भी कई शतक बीत जाने पर, इन दोनों में विशेष अंतर नहीं; पर इनके अनुयायी लोग इस नाममात्र के अंतर को वृथा ही बढ़ा रहे हैं. यदि हम लोग हिन्दी में संस्कृत के और मुसलमान उर्दू में अरबी-फारसी के शब्द कम लिखें तो दोनों भाषाओं में बहुत थोड़ा भेद रह जाय और संभव है, किसी दिन दोनों समुदायों की लिपि और भाषा एक हो जाय. धर्मभेद के कारण पिछली शताब्दी में हिन्दी और उर्दू के प्रचारकों में परस्पर खींचातानी शुरू हो गई. मुसलमान हिन्दी से घृणा करने लगे और हिंदुओं ने हिन्दी के प्रचार पर जोर दिया. परिणाम यह हुआ कि हिन्दी में संस्कृत शब्द और उर्दू में अरबी-फारसी के शब्द मिल गए और दोनों भाषाएँ क्लिष्ट हो गईं. इन दिनों कई राजनीतिक कारणों से हिन्दी-उर्दू विवाद और भी बढ़ रहा है, और 'हिंदुस्तानी' के नाम से एक खिचडी भाषा की रचना की जा रही है, जो न शुद्ध हिन्दी होगी और न शुद्ध उर्दू.

आरंभ से ही उर्दू और हिन्दी में कई बातों का अंतर भी रहा है. उर्दू फारसी लिपि में लिखी जाती है और उसमें अरबी-फारसी शब्दों की विशेष भरमार रहती है. इसकी वाक्य रचना में बहुधा विशेष्य विशेषण के पहले आता है, और (कविता में) फारसी के संबोधन कारक का रूप प्रयुक्त होता है. हिन्दी के संबंधवाचक सर्वनाम के बदले उसमें कभी-कभी फारसी का संबंधवाचक सर्वनाम आता है. इनके सिवा रचना में और भी दो-एक बातों का अंतर है कोई-कोई उर्दू लेखक इन विदेशी शब्दों के लिखने में सीमा के बाहर चले जाते हैं. उर्दू और हिन्दी की छंद रचना में भी भेद है. मुसलमान लोग फारसी-अरबी के छंदों का उपयोग करते हैं. फिर उनके साहित्य में मुसलमानी इतिहास और दंतकथाओं के उल्लेख बहुत रहते हैं. शेष बातों में दोनों भाषाएँ प्राय: एक हैं.

कुछ लोग समझते हैं कि वर्तमान हिन्दी की उत्पत्ति लल्लू जी लाल ने उर्दू की सहायता से की है. यह भूल है. 'प्रेमसागर' की भाषा दोआब में पहले ही से बोली जाती थी. उन्होंने उसी भाषा का प्रयोग 'प्रेमसागर' में किया और आवश्यकतानुसार उसमें संस्कृत के शब्द भी मिलाए. मेरठ के आसपास और उसके कुछ उत्तर में यह भाषा अब भी अपने विशुद्ध रूप में बोली जाती है. वहाँ इसका वही रूप है, जिसके अनुसार हिन्दी का व्याकरण बना है. यद्यपि इस भाषा का नाम 'उर्दू या खड़ी बोली' नया है, तो भी उसका यह रूप नया नहीं, किंतु उतना ही पुराना है, जितने उसके दूसरे रूपब्रजभाषा, अवधी, बुंदेलखंडी आदि हैं. देहली में मुसलमानों के संयोग से हिन्दी भाषा का विकास जरूर हुआ, और इसके प्रचार में भी वृद्धि हुई. इस देश में जहाँ-जहाँ मुगल बादशाहों के अधिकारी गए वहाँ-वहाँ वे अपने साथ इस भाषा को भी लेते गए.

कोई-कोई लोग हिन्दी भाषा को 'नागरी' कहते हैं. यह नाम अभी हाल का है, और देवनागरी लिपि के आधार पर रखा गया जान पड़ता है. इस भाषा के तीन नाम और प्रसिद्ध हैं (1) ठेठ हिन्दी, (2) शुद्ध हिन्दी और (3) उच्च हिन्दी. 'ठेठ हिन्दी' हमारी भाषा के उस रूप को कहते हैं, जिसमें 'हिंदवी छुट् और किसी बोली की पुट् न मिले.' इसमें बहुधा 'तद्‌भव' शब्द आते हैं. 'शुद्ध हिन्दी' में तद्‌भव शब्दों के साथ तत्सम शब्दों का भी प्रयोग होता है, पर उसमें विदेशी शब्द नहीं आते. 'उच्च हिन्दी' शब्द कई अर्थों का बोधक है. कभी-कभी प्रांतिक भाषाओं से हिन्दी का भेद बताने के लिए इस भाषा को 'उच्च हिन्दी' कहते हैं. अँगरेज लोग इस नाम का प्रयोग बहुधा इसी अर्थ में करते हैं. कभी-कभी 'उच्च हिन्दी' से वह भाषा समझी जाती है, जिसमें अनावश्यक संस्कृत शब्दों की भरमार की जाती है और कभी-कभी यह नाम केवल 'शुद्ध हिन्दी' के पर्याय में आता है.

(6) तत्सम और तद्‌भव शब्द

उन शब्दों को छोड्‌कर जो फारसी, अरबी, तुर्की, अँगरेजी आदि विदेशी भाषाओं के हैं (और जिनकी संख्या बहुत थोडी केवल दशमांश है) अन्य शब्द हिन्दी में मुख्य तीन प्रकार के हैं

(1) तत्सम

(2) तद्‌भव

(3) अर्द्धतत्सम

तत्सम वे संस्कृत शब्द हैं, जो अपने असली स्वरूप में हिन्दी भाषा में प्रचलित हैं; जैसे राजा, पिता, कवि, आज्ञा, अग्नि, वायु, वत्स, भ्राता इत्यादि.

तद्भव वे शब्द हैं जो या तो सीधे प्राकृत से हिन्दी भाषा में आ गए हैं या प्राकृत के द्वारा संस्कृत से निकले हैं; जैसे राय, खेत, दाहिना, किसान.

अर्ध्दतत्सम उन संस्कृत शब्दों को कहते हैं, जो प्राकृत भाषा बोलने वालों के उच्चारण से बिगड़ते-बिगड़ते कुछ और ही रूप के हो गए हैं, जैसे बच्छ, अर्थों, मुँह, बंस, इत्यादि.

बहुत से शब्द तीनों रूपों में मिलते हैं, परंतु कई शब्दों के सब रूप नहीं पाए जाते. हिन्दी के क्रिया शब्द प्राय: सबके सब तद्‌भव हैं. यही अवस्था सर्वनामों की है. बहुत से संज्ञा शब्द तत्सम या तद्‌भव हैं और कुछ अर्द्धतत्सम हो गए हैं. तत्सम और तद्‌भव शब्दों में रूप की भिन्नता के साथ बहुधा अर्थ की भिन्नता भी होती है. तत्सम प्राय: सामान्य अर्थ में आता है और तद्‌भव शब्द विशेष अर्थ में; जैसे स्थान सामान्य नाम है, पर ' थाना' एक विशेष स्थान का नाम है. कभी-कभी तत्सम शब्द से गुरुता का अर्थ निकलता है और तद्‌भव से लघुता का, जैसे देखना साधारण लोगों के लिए आता है, पर 'दर्शन' किसी बड़े आदमी या देवता के लिए. कभी-कभी तत्सम के दो अर्थों में से तद्‌भव से केवल एक ही अर्थ सूचित होता है; जैसे-वंश का अर्थ कटंब' भी है, और 'बाँस' भी है; पर तद्‌भव 'बाँस' से एक ही अर्थ निकलता है.

यहाँ तत्सम, तद्‌भव और अर्द्धतत्सम शब्दों के कुछ उदाहरण दिए जाते हैं –

आगे पढ़ने के लिए अंक डाउनलोड करें, लिंक पर क्लिक करें...

(7) देशज और अनुकरणवाचक शब्द

हिन्दी में और भी दो प्रकार के शब्द पाए जाते हैं

(1) देशज (2) अनुकरणवाचक.

देशज वे शब्द हैं जो किसी संस्कृत (या प्राकृत) मूल से निकले हुए नहीं जान पड़ते और जिनकी युत्पत्ति का पता नहीं लगता; जैसे तेंदुआ, खिड़की, धूआ, ठेस इत्यादि.

ऐसे शब्दों की संख्या बहुत थोड़ी है और संभव है कि आधुनिक आर्यभाषाओं की बढ़ती के नियमों की अधिक खोज और पहचान होने से अंत में इनकी संख्या बहुत कम जो जाएगी.

पदार्थ की यथार्थ अथवा कल्पित ध्वनि को ध्यान में रखकर जो शब्द बनाए गए हैं वे अनुकरणवाचक शब्द कहलाते हैं; जैसे खटखटाना, धड़ाम, चट आदि.

(8) विदेशी शब्द

फारसी, अरबी, तुर्की, अँगरेजी आदि भाषाओं से जो शब्द हिन्दी में आए हैं, वे विदेशी कहाते हैं, अँगरेजी से आजकल भी शब्दों की भरती जारी है. विदेशी शब्द हिन्दी में ध्वनि के अनुसार अथवा बिगड़े हुए उच्चारण के अनुसार लिखे जाते हैं. इस विषय का पता लगाना कठिन है कि हिन्दी में किस-किस समय पर कौन से विदेशी शब्द आए हैं; पर ये शब्द भाषा में मिल गए हैं और इनमें कोई-कोई शब्द ऐसे हैं जिनके समानार्थी हिन्दी शब्द बहुत समय से अप्रचलित हो गए हैं. भारतवर्ष की और और प्रचलित भाषाओं विशेषकर मराठी और बँगला से भी कुछ शब्द हिन्दी में आए हैं. कुछ विदेशी शब्दों की सूची दी जाती है

(1) फारसी आदमी, उम्मेदवार, कमर, खर्च, गुलाब, चश्मा, चालू चापलूस, दाग, दूकान, बाग, मोजा इत्यादि.

(2) अरबी अदालत, इस्तिहान, एतराज, औरत, तनखाह, तारीख, मुकदमा, सिफारिश, हाल इत्यादि.

(3) तुर्की कोतल, , चकमक, तगमा, तोप, लाश इत्यादि.

(4) पोर्चुगीज कमरा, - नीलाम, पादरी, भारतौल, पेरू.

(5) अंगरेजी अपील, इंच, - कलक्टर, - कमेटी, कोट, , गिलास, , टिकट, , टीन, नोटिस, डाक्टर, डिगरी, , पतलून, फंड, फीस, फुट, मील, रेल, लाट, लालटेन, समन, स्कूल इत्यादि.

(6) मराठी प्रगति, लागू चालू बाड़ा, बाजू (ओर, तरफ) इत्यादि.

टोला उपन्यास, प्राणपण, आत, भद्रलोग ( भले आदमी), गल्प, नितांत इत्यादि.

 


मिलिए ग़ज़लकार ओम शंकर असर से 

हिन्दी में ऐसे अनेक ग़ज़लकार हैं, जो उर्दू एवं हिन्दी के शब्दों का सुन्दर सम्मिश्रण करते हुए ग़ज़लों को नयी अर्थवत्ता से दीप्त कर रहे हैं. अदम गोंडवी, कुंवर बेचैन, रामदरश मिश्र, राजेश रेड्डी, हरेराम समीप, राजेन्द्रनाथ रहबर प्रभृति इसके उदाहरण हैं, किन्तु ऐसे अनेक श्रेष्ठ ग़ज़लकार रहे हैं, जिनकी सर्जनात्मकता स्वान्तः सुखाय सृजन तक सीमित रह गयी है और पाठकों तक उनका रसास्वादन नहीं पहुँच सका है. ऐसे ही एक अलबेले शायर हैं ओम शंकर ‘असर’ जी, जिनकी प्रतिभा के आयामों को देखें तो आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है कि वृन्दावनलाल वर्मा एवं केदारनाथ अग्रवाल का यह सुयोग्य शिष्य 45 वर्षों के कठोर परिश्रम से ‘झाँसी क्रांति की काशी’ जैसा 1200 पृष्ठों का विशालकाय इतिहास ग्रन्थ लिखता है, 1000 से अधिक नायाब ग़ज़ल रचता है, सैकड़ों चित्र बनाकर चित्रकार के तौर पर रंग एवं चाकू से (जी हाँ, ब्रश की जगह चाकू से) अपनी प्रतिभा को कागज़ पर उकेरता है, इतिहास, कहानी, आलोचना, पत्रकारिता, निबंध, व्यंग्य, उपन्यास सभी पर अपनी कलम चलाता है, लेकिन उसकी कहीं कोई चर्चा नहीं होती. असर जी ऐसे ही प्रतिभास्फोट व्यक्तित्व हैं. आज उनकी वय नब्बे वर्ष से अधिक है, किन्तु वे आज भी साहित्य साधना में निरत हैं. उनकी ग़ज़ल पढ़कर लगता है कि अब तक गुमनाम रहा एक बेहतरीन शायर आम पाठकों से अवश्य रूबरू होना चाहिए.

असर जी की ग़ज़लों में वैविध्य स्पष्ट दीखता है. उनकी ग़ज़लों में ग़ज़ल पर बातचीत है, पारंपरिक प्रणयालाप है, अभावग्रस्त लोगों के प्रति संवेदनशीलता है, राजनैतिक पाखंड पर प्रहार है और मनुष्यता को बचाए रखने की तीव्र स्पृहा है. वे ग़ज़ल लिखने वालों के लिए लिखते हैं-

होश कहता है, कभी ताड़ को, मत तिल लिखना,

जिगर को सिर्फ जिगर, और दिल को दिल लिखना.

उसको भरमाना है हर शय को, वो भरमाएगा,

मायागर लिख न सको, तुम उसे बातिल लिखना.

असर जी एक बेजोड़ शायर तो हैं ही, ग़ज़ल के अर्थ, स्वरूप तथा वैशिष्ट्य पर भी उनकी गहन दृष्टि है. वे ग़ज़ल पर बात करते हुए लिखते हैं-

जन्म पर तखलीक के, बजती है वो थाली ग़ज़ल,

शोहरतों के दीप जलवाती, वो दीवाली ग़ज़ल.

जब किसी को शाइराना, आ गयी थोड़ी तमीज,

इश्क गर उसने किया तो, उसने लिख डाली ग़ज़ल.

पारम्परिक ग़ज़ल और नूतन विषयों से जुड़ी ग़ज़लों के विषय में चर्चा करते हुए वे अत्यंत रोचक ढंग से अपनी बात शेरों में कहते हैं-

नामुकम्मिल इश्क की, होती है जंजाली ग़ज़ल,

जिसमें कटु आलोचना हो, है वही काली ग़ज़ल.

हुस्न की जलवागिरी का, ज़िक्र करती शाइरी,

आरिजों की हम कहें, या लबों की लाली ग़ज़ल.

वे ग़ज़ल को भारत की अन्य भाषाओँ में लिखे जाते देखकर हर्ष व्यक्त करते हुए लिखते हैं-

पहले उर्दू में हुआ करती थी ये सिन्फ़-ए-सुखन,

अब मराठी, बंग्ला, पंजाबी, गुजराती ग़ज़ल.

इसके अंदाज़-ए-बयाँ का अपना ही इक लुत्फ़ है,

तेलुगू, तामिल या कन्नड़ हो या मलियावी ग़ज़ल.

ये भी जादू है ‘असर’ उर्दू के रंग-ए-सुखन का,

हिन्दी ने अपने कुतुबखानों में भर डाली ग़ज़ल.

असर जी को इस बात की गहरी टीस है कि ढेरों नायाब ग़ज़ल लिखने के बावजूद उनकी ग़ज़ल आम लोगों तक नहीं पहुँच सकी हैं और उनके सामने शायद इनकी चर्चा भी नहीं होगी. इसी व्यथा को अभिव्यक्ति देते हुए बेहद दर्द के साथ वे लिखते हैं-

हम ग़ज़ल लिखने के पहले, खुद ग़ज़ल हो जाएँगे,

सुनने वाले बाद सदियों के, समझ ये पाएँगे .

तसव्वुर की दावतों में, लफ्ज़ रहते हैं ज़रूर,

वो ग़ज़ल की ज़रूरत को, देख सुनकर आएँगे.

ग़ज़ल मूलतः आशिक और माशूका का बयान है, जिसमें स्मृतियाँ महती भूमिका निभाती हैं. ऐसे अशआर लिखने में असर जी का कोई जवाब नहीं. छोटी बहर की अपनी एक रोमांटिक ग़ज़ल में वे इसे कुछ इस तरह बेहद नाज़ुक अंदाज़ में बयान करते हैं-

क्यों मुझे याद बहुत आता है, चेहरा कोई,

बन के सैलाब बहा जाता है ,दरिया कोई .

मैं मुजस्सिम हूँ मुझे, छू के ज़रा देखो तो,

मुझको आगोश में ले लो, मैं नहीं साया कोई.

जाम, मीना, मयकदा, साक़ी और पैमाना जैसे ग़ज़ल के पारंपरिक उपमानों को जोड़कर बेहतरीन अंदाज़ में शेर बनाने की कला में असर जी सिद्धहस्त हैं. उनकी इस जड़ाऊ कला का नमूना देखिये-

जाम, मीना, मयकदा, साक़ी औ पैमाना गया,

 आगे पढ़ने के लिए अंक डाउनलोड करें, लिंक पर क्लिक करें...

 

स्विट्ज़रलैंड के समय बैंक की अवधारणा .... 

पहली बार जब मैंने "समय बैंक" की इस अवधारणा के बारे में सुना, तो मैं बहुत उत्सुक हुई और मकान मालकिन से और पूछा. "समय बैंक" की अवधारणा स्विस फेडरल सामाजिक सुरक्षा मंत्रालय द्वारा विकसित एक वृद्धावस्था पेंशन कार्यक्रम है. लोगों ने बुजुर्गों की देखभाल करने के लिए 'समय' बचा लिया और जब वे बूढ़े हो गए, या बीमार या आवश्यक देखभाल के लिए जब जरुरत हुई वे इसे वापस ले सकते हैं. आवेदक स्वस्थ होना चाहिए, संवाद करने में अच्छा और प्यार से भरा होना चाहिए. रोज उन्हें बुजुर्गों की देखभाल करनी होती है, जिन्हें मदद की ज़रूरत होती है. उनके सेवा घंटों को सामाजिक सुरक्षा प्रणाली के व्यक्तिगत 'समय' खातों में जमा किया जाता है. वह सप्ताह में दो बार काम पर जाती थीं, हर बार दो घंटे बिताती थीं, बुजुर्गों की मदद करती थीं, खरीदारी करती थीं, उनके कमरे की सफाई करती थीं....

 आगे पढ़ने के लिए अंक डाउनलोड करें, लिंक पर क्लिक करें...


अपनी राय, प्रतिक्रियाएं हम तक पहुंचाते रहिए. नीचे कमेंट कीजिए या फिर  thefalgunvishwa@gmail.com पर मेल कीजिए. 




Comments

Popular posts from this blog

साप्ताहिक फाल्गुन विश्व का प्रकाशन आरंभ...

पत्रिका फाल्गुन विश्व का पुनर्प्रकाशन शुरु हो गया है. पत्रिका अब साप्ताहिक स्वरुप में प्रकाशित हुआ करेगी. पत्रिका पढ़ने के इच्छुक नीचे दिए लिंक से डाउनलोड कर पीडीऍफ़ स्वरुप में पत्रिका पढ़ सकते हैं. https://drive.google.com/file/d/1TOJhqAN_g7V6cH74x9XpoKodG4PCHFNC/view?usp=sharing

लोकमत समाचार में प्रकाशित स्तम्भ 'मन-नम' से कुछ भाग...

 सवाल-जवाब : एक  सवाल - जवाब : दो  अकेला  उलूक भय  संक्रांति  नया साल और नैनूलाल 

सोशल डिस्टेंसिंग बनाम फिजिकल डिस्टेंसिंग : मंशा समझिए

विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से जारी प्रेस विज्ञप्ति में फिजिकल डिस्टेंसिंग का उल्लेख और इसे ही इस्तेमाल करने की सिफारिश  नॉवेल कोरोना वायरस के नाम पर जबसे भारत सरकार की तरफ से आधिकारिक बयान आने लगे और मीडिया में COVID-19 नामक इस वायरस को कुख्यात करने का खेल शुरु हुआ, तबसे एक शब्द बारम्बार प्रयोग किया जा रहा है और वह शब्द है, 'सोशल डिस्टेंसिंग*.' इस शब्द को जब मैंने पहली बार सुना तबसे ही यह भीतर खटक रहा था, वजह सिर्फ इतनी ही नहीं कि भाषा और साहित्य का एक जिज्ञासु हूँ, बल्कि इसलिए भी कि इस शब्द में  विद्वेष और नफरत की ध्वनि थी / है. मैंने दुनिया भर की मीडिया को सुनना- समझना शुरु किया. चीन कि जहाँ नॉवेल कोरोना वायरस का प्रादुर्भाव हुआ और जहाँ से पूरी दुनिया में फैला, वहाँ के शासकों और वहाँ के बाजार ने 'सोशल डिस्टेंसिंग' शब्द का इस्तेमाल किया, इटली ने किया, ईरान ने किया, अमेरिका धड़ल्ले से कर रहा है. भारत सरकार के समस्त प्रतिनिधि, तमाम मीडिया घराने और उनके कर्मचारी, देश भर के अख़बार, आमजन और बुद्धिजीवी सभी 'सोशल डिस्टेंसिंग' शब्द का चबा-चबाकर खूब इस्तेमाल कर र