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पंचम अंक प्रकाशित...

 फाल्गुन विश्व का पाँचवां अंक प्रकाशित...



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इस अंक में पढ़िए... 

 

मिशन मन / समग्र चैतन्य

कोरोना : धमकाना बंद होना चाहिए

फाल्गुन विश्व विशेष : मौलिक चिंतन

विशेष : भारतवर्ष में विविध विवाह संस्कृतियाँ

मौलिक विचार / साहित्य की फसल और घास की चुनौती

कन्हानवारी / विवेक पाटिल

आखिरी पृष्ठ / हिन्दी का प्रचार-प्रसार अपनत्व से करें

पुस्तकहिंदूइस्म बियॉन्ड रिचुअलिस्मनयी पीढ़ी के लिए प्रेरणादायक

 

मिशन मन में पढ़िए - 

गुणों को आत्मसात करने की जरुरत

मनुष्य को प्यास लगी तो वह नदी के पास गया. कहा जाए तो मनुष्य ने नदी की सोहबत में ही ठीक तरह से अपनी प्यास को समझा और प्यास को बुझाना समझा. उसे भूख लगी तो उसने वृक्षों-वनस्पतियों का रुख किया. उसने फल चखे, खाए और अपनी भूख को बुझाने का तरीका पाया. मनुष्य ने फूलों की सोहबत में प्रेम सीखा. आसमान से ऊँचाई सीखी, पर्वतों से अडिग रहने का संकल्प, नदी से प्यास बुझाने के साथ-साथ सतत प्रवाहित रहने का गुर सीखा. नदी से ही मनुष्य ने जाना कि जो सदा प्रवाहित रहता है, वह साफ, पारदर्शी और निर्दोष बना रहता है, जो ठहर जाता है, रुक जाता है, वह गंदला जाता है, गन्दा हो जाता है, खराब हो जाता है, सड़ जाता है, उसकी पारदर्शिता खत्म हो जाती है, उसमें दोष उत्पन्न हो जाता है. इसीलिए मनुष्य को सतत चलते रहने, प्रवाहित होते रहने, किसी एक...

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पहली बात में पढ़िए -

कोरोना : धमकाना बंद होना चाहिए 

विज्ञान सम्मत और विवेक सम्मत होने की वजह से जानता हूँ कि यकायक और अचानक कुछ नहीं होता है, लेकिन राजनीति और शासननीति जैसे ठान कर बैठी रहती हैं कि जनता कोऔचकता’ से हीमारनाचाहिए. एक बार फिर कोरोना के नाम पर शासन द्वारा आमजन को डराने-धमकाने का खेल शुरु हो गया है.

ऋतु परिवर्तन के समय हमेशा, समस्त दुनिया में बीमारियाँ फैलती हैं. भारत में भी, महाराष्ट्र में भी, नागपुर में भी फैलती हैं, गत साल-सवा साल पहले तकवायरलके नाम की धमक थी. हर कहीं ऋतु परिवर्तन के समयवायरलकी चपेट में आकर लोगों के बीमार होने की बात आम थी.

पिछले साल भर सेवायरलको दवा बाजार की बदौलत नया नाम मिल गया है, ‘कोरोना.’ अन्य बीमारी की तरह एक बीमारी. बेशक जैसे हर बीमारी जानलेवा होती है, इस बीमारी कोरोना से भी किसी की जान जा सकती है, लेकिन अगर कोरोना हो गया तो जान चली ही जाएगी, यह सुनिश्चित भविष्यवाणी जब शासन-प्रशासन की तरफ से होने लगती है तो उनकी नीयत और इरादे, दोनों पर संदेह पनपने लगता है,,, 

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मौलिक चिंतन में पढ़िए पुष्पेन्द्र फाल्गुन को...

खुदी-बेखुदी

 

जीने के लिए होना जरुरी है और होने के लिए खुदी को जानना अनिवार्य.

खुदी यानी भीतर की वह सत्ता जो हमें चलायमान-गतिमान रखती है. खुदी यानी मैं. ज़माने में अक्सर खुद को मैं मान लिया या समझ लिया जाता है, लेकिन कोई खुद बिना खुदी के कुछ नहीं.

हमारा यह शरीर न जाने कितने अवयवों के संगठित और समग्र क्रिया-प्रक्रिया से कर्तव्यदक्ष बना रहता है. इन अवयवों का पृथक स्वरुप में न कोई महत्व है और न ही उपयोग. परस्पर निर्भर रहकर ही ये अवयव अपना स्वारथ सिद्ध करते हैं और अपनी सार्थकता साबित करते रहते हैं. शरीर संतुलित तरीके से गतिमान रहता है तो मनुष्य बुद्धि की पुष्टि के लिए प्रयत्नशील होता है. इस प्रक्रिया में संवेदना और करुणा की सहभागिता से व्यक्ति में मेधा, प्रज्ञा, चेतना के लोक आलोकित होते हैं. आलोकित होना ही दरअसल होने की सम्पूर्णता का परिणाम है. इसी परिणाम को हम खुदी के नाम से संबोधित करते हैं.

इस खुदी के लिए खुद को मिटाना होता है. ठीक उसी तरह जैसे अँधेरे को मिटाने पर हम उजाला पाते हैं. खुदी में आ गए और खुदी को मिटाने लगे तो ऐसा होना नहीं है. उजाले को मिटाने पर अँधेरा पाया जा सकता ही. खुद को मिटाकर खुदी में आ गए लेकिन खुदी को मिटाकर खुद को नहीं पाया जा सकता, न ही खुद में आया जा सकता है. खुद को मिटाकर खुदी में आने की यात्रा एकतरफ़ा मार्ग है. इस मार्ग से वापसी संभव नहीं. इस मार्ग पर रोमांच या किसी उपलब्धि के लिए यात्रा नहीं हो सकती, इस मार्ग पर वह व्यक्ति यात्रा कतई न करे जिसे परिणाम चाहिए. इस मार्ग का यात्री होने की अवसर उसे ही हासिल होता है जो स्वयं परिणाम हो जाने को तत्पर हो.

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प्रारब्ध

 

प्रकृति में सबके हिस्से का प्रारब्ध तय है. लेकिन क्या हम प्रकृति की इस नियति को स्वीकार कर पाते हैं? विगत कई शताब्दियों से हमने प्रकृति की नियति को धता बताकर अपनी नियति को प्रकृति का प्रारब्ध बनाने का कुत्सित चक्र चला रखा है. जितना लम्बा और पुराना मनुष्य के लालच, महत्वकांक्षा और युद्ध का इतिहास है, उतने ही समय से मनुष्य ने प्रकृति द्वारा प्रदत्त प्रारब्ध पर अपनी नियति थोपने का कार्यक्रम चला रखा है. आदिवासी जन आज भी प्रकृति के प्रारब्ध को अक्षुण्ण बनाए रखने का जतन करते हैं. पूरी दुनिया के आदिवासी जन आपको यह संकल्प जीते हुए दिखाई देते हैं. आदिवासी जन और गैर आदिवासी जन के बीच लालच और महत्वकांक्षा एक मोटी फर्क रेखा बनाती है. लालच और महत्वकांक्षा ही हमें वृहत, व्यापक और समग्र मानव समुदाय से काटकर विभिन्न जातियों, श्रेणियों और धर्मों में वर्गीकृत करती है. अपनी लालच और महत्वाकांक्षा को जीने में ही आज का मनुष्य उद्धृत है.

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त्रि-आयामी सूत्र -1

 

क्या आप जानते हैं कि हमारे जीवन के त्रि-आयामी सूत्र कौन से हैं? ये सूत्र हैं देखना, सुनना, समझना. हमारा समूचा जीवन इन्हीं सूत्रों के जरिए वलय बनाने में बीतता है.

आज सुबह वाट्स एप पर एक करीबी मित्र ने गलती और माफी के विषय में जानने की उत्सुकता दिखाई. हमारा जो पहला सूत्र है देखना, उसी के आलोक में मित्र की जिज्ञासा शांत करते हैं. देखना और अपनी शर्तों पर देखना बिल्कुल अलग-अलग प्रक्रिया है. अक्सर हम किसी भी बात, चीज, व्यक्ति, घटना यहाँ तक कि स्वप्न भी अपनी ही शर्तों पर देखने की कोशिश करते हैं. जो है उसे वैसा ही नहीं देखते बल्कि देखते समय हमारी आँखों पर मान्यताओं, सूचनाओं, आग्रहों, ज्ञान और अपेक्षाओं का अदृश्य चश्मा चढ़ा होता है. जो जैसा है, उसे वैसा ही देखना आ जाए तभी दरअसल हमें देखना आता है. इस प्रक्रिया में सबसे ज्यादा मजेदार वह चरण है जब आप जो जैसा है उसे वैसा ही देख रहे हैं लेकिन आपको देखने वाला अभी भी उसी अदृश्य चश्मे से आपको देख रहा है, जिससे उबरकर आपने देखना शुरु ही किया है...

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त्रि-आयामी सूत्र -2

 

हर तरह की मान्यता, आग्रह, ज्ञान, अपेक्षा और सूचना से परे जाकर जो जैसा है, उसे वैसा ही देख पाना त्रि-आयामी सूत्र का पहला चरण है और इसके विषय में पिछले सप्ताह हमने चर्चा की. इस हफ्ते दूसरे सूत्र यानी सुनने के विषय में हम बात करेंगे.

कभी आपने सोचा है कि आप क्या सुनते हैं? अभी सोचिए कि क्या सुनते हैं आप? क्या वही सुनते हैं जो सुना जाना चाहिए या जो सुनना चाहते हैं उसे ही सुनते रहते हैं, सुनाते रहते हैं?

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त्रि-आयामी सूत्र – 3

 

अस्तु, त्रि-आयामी सूत्र के तीसरे बीज सूत्र पर हम पहुँच गए हैं. तीसरा बीज सूत्र है 'समझना.' पहला सूत्र 'देखना', दूसरा सूत्र है 'सुनना' और तीसरा सूत्र है 'समझना.' किस तरह समझना है?

जो देखा है और जिस देखे को सुना है, उसी को समझना है. समझने की प्रक्रिया हमलोग सबसे ज्यादा नजरंदाज करते हैं. जो देखते हैं कई बार उसे जस का तस सुन भी लेते हैं लेकिन समझते समय, समझने के तरीके को लेकर संभ्रमित हो जाते हैं.

हर तरह की मान्यता, आग्रह, ज्ञान, अपेक्षा और सूचना से परे जाकर जो जैसा है, उसे वैसा ही देख पाना त्रि-आयामी सूत्र का पहला चरण है, अतः आपने इस सूत्र को अंगीकार करते हुए जो जैसा है, वैसे ही देखा, फिर त्रि-आयामी सूत्र के दूसरे चरण को स्वीकार करते हुए देखे दृश्य की प्रत्येक ध्वनि को उन-उन ध्वनियों में निहित अर्थ के साथ सुना आपने, बिना अपनी किसी ध्वनि को उनमें मिलाए. 

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दृष्टान्त – १

 

दो लोगों को परस्पर हाथापाई करते देखकर आप क्या करेंगे? इस हफ्ते एक सरकारी कार्यालय के परिसर में मैंने दो युवाओं को हाथापाई करते देखा, यह भी देखा कि कुछ लोग दोनों भिड़े युवाओं को एक-दूसरे से खींचकर अलग कर रहे थे लेकिन जितना ही उन दोनों को आपस में भिड़ने से, गुत्थमगुत्था होने से रोका जाता, उन दोनों का तैश उतना ही बढ़ता जाता. मैं उसी जगह से गुजर रहा था. वे दोनों युवा एक-दूसरे को गन्दी-गन्दी गाली बक रहे थे और एक-दूसरे को देख लेने की धमकी दे रहे थे. मैं एकदम उस और बढ़ा और उन दोनों युवाओं की बाँह पकड़कर एक-दूसरे पर धकेल दिया और फिर दोनों को परस्पर आपस में दबाने के लिए उनकी पीठ पर जोर देने लगा, साथ ही मैं जोर-जोर से बोल रहा था, ‘लो देखो एक-दूसरे को, अच्छे से देखना और बिना देखे एक-दूसरे को बिलकुल मत छोड़ना...’ एकदम से अपने साथ हुए ऐसे व्यव्हार और ...

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न्याय और सत्य

 

हैदराबाद पुलिस द्वारा भागने की कोशिश कर रहे दुष्कर्म और हत्या के चार आरोपियों के एनकाउंटर की खबर से देश में फिर से एकबार न्याय बनाम सत्य की बहस मुखर हो उठी है. देश के आमजन पुलिस के कर्म को न्यायसंगत करार दे रहे हैं लेकिन बुद्धिजीवी और उच्चकोटि के मानवाधिकार कार्यकर्ता इसे पुलिस द्वारा मानवाधिकारों के हनन के एक और मामले की ही तरह देख रहे हैं.

एक कर्तव्यपरायण युवती की समस्त आकांक्षाएं एवं जिन्दगी बलात्कारी मानसिकता के युवाओं द्वारा दबोचकर ख़त्म कर दी गयीं. कानूनन इसे आपराधिक कृत्य माना गया. कानूनी प्रक्रिया के जरिए आरोप और अपराध की परिभाषाओं में समूचे घटनाक्रम को देखने की कार्रवाई शुरु हुई. ऐसा हर बलात्कार के बाद होता है. इधर कानून सख्त किए जाने के बाद बलात्कारी दुष्कर्म करने के बाद हत्या भी करने लगे, इससे उनके खिलाफ बनने वाला मुकदमा कुछ कमजोर तो पड़ता ही है.

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फर्ज और जज्बात

 

तेज भूख लगी हो और खाने का कुछ सामान सामने आ जाए तो ऐसे कितने लोग हैं जो अपनी भूख मिटाने को उतावले हुए बिना यह जानने-समझने लगते हैं कि सामने आया हुआ खाना दरअसल उनकी मेहनत और परिश्रम से आया है या नहीं और उनके हक़ का है या नहीं. भूख लगने पर भूख मिटाने के लिए टूट पड़ने की प्रवृति हमारे आज के समाज का फैशन है. भूख महसूस करना एक जज्बात है, एक भावना, विचार. लेकिन, उस भूख को शांत करने के लिए मेहनत और हक़ के रास्ते का अख्तियार ही फर्ज है, दायित्व है, कर्तव्य है.

जरा सा सोचेंगे तो पाएँगे कि हम सब लोग आजकल बेहद जज्बाती हैं. कोई भी हमारे जज्बातों को उकसा देता है, ऐसा लगता है कि हम सब जज्बातों के पुलिंदे में लिपटे हुए हैं कि कोई भी हमारे जज्बातों की चिमटी-चिकोटी लेकर हमें मनुष्य से जानवर में तब्दील कर सकता है. जज्बात सिर्फ फर्ज से ही जब्त हो सकते हैं. जज्बातों को अगर जब्त करने की कोशिश से मनुष्य तौबा करने लगे तो उसमें और पशु में क्या अंतर?

अन्य जीवों के बनिस्बत मनुष्य को इसलिए बेहतर जीव माना गया कि उसमें विचार करने और अपने विचारों पर अमल करने की क्षमता होती है. मैं इस सूत्र में यह जोड़ना चाहता हूँ कि मनुष्य में ही अपने जज्बातों को जब्त करने और फर्ज के जरिये विचारों में रुपांतरित करने की नैसर्गिक प्रतिभा होती है. लेकिन, निर्देश, आदेश, अनुशासन और ....

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सालाहियत

मित्र का फोन आया कि उसके कोचिंग कक्षा का एक विद्यार्थी बेहद तनावग्रस्त है और पिछले दो दिन से उस विद्यार्थी के परिजन बहुत परेशान है. विद्यार्थी ने हाथ की नाड़ियों को काटकर खुदकुशी की कोशिश भी की. जिस वक़्त फोन आया उस समय रात के दो बज रहे थे. अगली सुबह मैं मित्र के साथ उस विद्यार्थी के घर गया. कुछ देर तक उस किशोरवय से बात करने के बाद मैं उसे समझा पाया था कि उसका जीवन और उसका तनावरहित रहना दरअसल कितने ही लोगों के चेहरे पर राहत और खुशी उत्पन्न करने का कारण बनेगा. वह किशोर मेरे साथ कुछ और वक़्त बिताने के लिए तैयार हो गया. तीन सप्ताह तक बिला नागा वह किशोर मेरे पास आता रहा और अंततः वह उस द्वंद्व से उबर पाया कि जिसके चलते वह तनावग्रस्त होकर अवसाद में चला गया था. करीब चार महीने तक मेरी सालाहियत में रहने के बाद वह किशोर सामान्य जीवन धारा में लौट आया.

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सह-मह

 

न्याय और सत्य का सीधा सम्बंध होता है. कई बार लेकिन न्याय और प्रेम का सीधा सम्बंध नहीं स्थापित होने पाता. इस असम्बद्धता से प्रेम और सत्य का सम्बंध भी तादात्म्यता में रुपांतरित होने से वंचित रह जाता है. ‘सहन’ इसी अवसर पर अपने समूचे अर्थ में जीवन के लिए अपरिहार्य हो उठता है. ‘सह’ में एकाकीपन का तिरोहण हो जाता है. सहने में अहंकार किंचित भी विशेषण नहीं बन पाता है. सहने से ही ‘मैं’ दरअसल ‘मय’ में रुपांतरित होता है और उसकी ध्वनि ‘हम’ की शक्ल में गूँजने लगती है. हम की अनुगूँज जैसे-जैसे महती होते जाती है, हम न्याय की तरफ अग्रसर होने लगते हैं और सत्य से तब हमारा साक्षात्कार अकेले नहीं समग्र सहयात्रियों का होता है.

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चार बातें

 

जिस विषय पर आपका नजरिया बन गया है, उस विषय पर दूसरों का नजरिया क्यों टटोलते हो? क्या अपने नजरिये पर भरोसा नहीं है? क्यों चाहते हो कि सबलोग वही देखें, जो आप देख रहे हैं! आपका देखना, आपका देखना है, देखने पर यदि आपको लगता है कि कुछ गलत है तो बेशक उस गलत का विरोध कीजिए, उस गलत के खिलाफ आवाज बुलंद कीजिए, लेकिन यह करने की बजाय यह ढूँढ़ने लगें आप कि और कौन-कौन गलत को गलत बोल रहा है, कौन-कौन नहीं, तो माफ़ कीजिएगा, आपको गलत को गलत कहने में डर लग रहा है. सही को सही कहने का साहस आप कैसे जुटाएंगे?

अँधेरे की स्मृतियाँ हमारे मन को प्रखरता के साथ अधिक काल तक घेरे रहती हैं. जरुरी है कि हम अँधेरे की इन स्मृतियों को उजाले की ताजा बयारों में रुपांतरित करते जाएं. अँधेरे को जलाकर उजाले में बदलने से ही मनुष्य का मन उज्ज्वल होता चलता है.

होता है और नहीं होता है के बीच एक प्रक्रिया होती है. इस प्रक्रिया को समझे-जाने बिना या तो होता है या फिर नहीं होता की तोतारटंत लगाने वालों से विवेक सम्मत प्रतिक्रियाओं की उम्मीद बेमानी है.

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ऋण-अनुबंध

 

धनाभाव और कर्ज का जैसे चोली-दामन का साथ हो गया है आज के युग में. अपनी निजता में रहते हुए भी सार्वजानिक जीवन-अनुशासन के अनुसार जीवन संचालित करना आज के इस दौर में निपट कष्टप्रद और दुखदायी प्रक्रिया है, लगता है जैसे इस तरह के जीवन जीने वालों के अस्तित्व में ही काँटे उग आए हों कि हर कोई इनसे दूरी बनाए रखने में ही अपनी बेहतरी समझता है. लेकिन समझने भर से बेहतरी हो जाती तो क्या बात होती.

प्राच्य भारतीय संस्कृति के जिस काल में भी सह-जीवन की अवधारणा फलीभूत हुई थी, उसी दौर को हम अपनी उस संस्कृति का स्वर्णिम काल कह सकते हैं, उस काल के बाद और पहले तो जैसे बस कतरों में जीवन बिताने को ही जिन्दा रहना मान लिया गया है. क्या हम सह-जीवन के उस स्वर्णिम दौर को पुनश्च नहीं प्राप्त कर सकते?

हालाँकि विपरीत और प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझने की शक्ति व क्षमता बनाए रखने अथवा बढ़ाने के लिए ही मेरे जीवन में ऋण का प्रादुर्भाव हुआ लेकिन क्रमशः समझ आया कि हम सभी का जीवन तो आखिर एक ऋण ही है. धनाभाव में धन का कर्ज लेकर हम चुका सकते हैं लेकिन यह जो जीवन ही हमें एक ऋण की तरह मिला है, इससे कैसे उऋण होंगे? हमारी संस्कृति में इसीलिए ऋण और उऋण की चर्चा बारम्बार आती है. सदा से कहा जाता रहा है कि माँ, पिता और गुरु के ऋण से कभी मुक्त नहीं हुआ जा सकता. इस सूत्र को मैं इस तरह समझ पाया कि भौतिक देहधारी जिस माँ ने अपनी कोख में नौ महीने रखकर इस दुनिया में मुझे अपना वजूद बनाने के लिए कायम ...

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आँसू का मतलब  

 

एक युवा कवि ने कविता लिखी कि गुब्बारे से खेल रही बच्ची का गुब्बारा जब फूट गया तो वह बहुत रोई और फिर सुई धागा लेकर अपने पिता के पास आयी. यह देखकर पिता का मन विकल हो उठा और उसने लाचारगी जाहिर करते हुए पुकार लगायी, ‘कोई उस बच्ची को समझा दे कि फूटे गुब्बारे सिले नहीं जा सकते...’

इस कविता को पढ़कर पाठकों ने विह्वल होकर प्रतिक्रियाएं दी तथा खुद को दुखी, सन्न, आवाक! आदि महसूस किया. मुझे लगा कि कवि और पाठकों ने उस बच्ची के आँसू के मतलब को समझने में भूल कर दी है.

उस बच्ची के आँसू में निराशा, हताशा, दुःख, भय, कातरता या कोई नकारात्मक भाव नहीं था. बच्ची जानती थी कि फूटे हुए गुब्बारे नहीं सिले जा सकते. लेकिन गुब्बारा फूट गया तो वह बच्ची रोई, इसलिए नहीं कि उसका खेल बीच में रुक गया था, ...

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दखलंदाजी

 

एक तस्वीर देखी इंटरनेट पर जिसमें जान बचाकर भागते हिरण के पिछले पैरों को चीते ने अपने अगले पंजों से पकड़ रखा है. उस तस्वीर को खींचने वाले मनुष्य ने हिरण और चीते के सिर पर फोटोशॉप के जरिए दो इबारत लिख दी, हिरण के सिर पर लिखा, ‘हे! भगवान मेरी जान बचा लो...’, चीते के सिर पर लिखा, ‘हे! भगवान, भूख भगाने का इंतजाम आज मेरे हाथों से छिटकने न पाए...’ फिर बहुत चालाकी से उस चित्र पर सबसे ऊपर लिखा गया, ‘ईश्वर किसकी प्रार्थना सुनेगा?’

इस सवाल के जवाब में अनेक जवाब थे, लेकिन एक जवाब में छिपे दंभ ने ध्यान आकृष्ट किया, 'इसीलिए हमारी प्रार्थनाएं अनसुनी रह जाती हैं क्योंकि ईश्वर भी खुद को असमंजस में पाता है...'

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मूल-मंत्र

 

सही को सही तो गलत भी कह सकता है लेकिन गलत को गलत बिना सही हुए न कहा जा सकता है न माना और न समझाया पर गलत रहते हुए गलत को सही जबरन मनवाने वाले को ही हुक्मरान कहते हैं.

सीढ़ियों पर बैठे हुए लोग नहीं जानते कि सीढ़ी शव-वाहक मात्र है. वह ऊपर ले जाती है तो क्यों और किसको? वह अगर नीचे उतारती है तो क्यों और किसको? सीढ़ियों पर बैठे हुए लोग शव-यात्रा में अड़ंगे सिद्ध होते हैं. यह सीढ़ी लकड़ी की हो कि लोहे की या सीमेंट की, धर्म की हो कि राजनीति की या आग्रह की.

विश्वसनीय वही हो सकता है जो सवालों के घेरे में है. जिसको लेकर कोई सवाल नहीं उस पर कोई क्यों विश्वास करे?

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न्याय, सत्य और प्रयोग

 

सभी को न्याय चाहिए लेकिन क्या सभी न्यायसंगत तरीके से जीते हैं? सभी को सत्य चाहिए लेकिन क्या सभी सत्य के साथ जीते हैं. न्याय और सत्य जीवन के प्रत्येक श्वास में उतारने से सार्थक होते हैं, चाहने, मांगने या पाने की होड़-दौड़ से नहीं.

किसी ने सवाल किया है कि न्याय और सत्य के साथ जीवन जिया कैसे जाए? वह भी आज के बाजारवादी एवं उपभोक्तावादी दौर में?

दरअसल इस तरह के सवाल असत्य और अन्याय को तरजीह देने वाले ही उठाते हैं. इस तरह के सवाल उठाने वालों के लिए सत्य और न्याय नारे, घोषणा और जयकारे की चीज भर हैं.

लगातार प्रयोग से न्याय और सत्य जीवन में उतरता है. साहस और संघर्ष से ही न्याय और सत्य का उत्कर्ष होता है.

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जान-पहचान

 

खुद को जानते-पहचानते हैं? कैसे? क्या समझा पाएंगे?

खुद को अपने नाम से जानते हैं? अपने काम से? अपने मजहब या धर्म से? अपनी जाति या गोत्र से?

अपने पिता के नाम या काम से? अपने वैभव, समृद्धि या धन-संपदा से? अपनी लाचारी, आभाव या दैन्यता से? अपने ज्ञान या प्रतिभा से? अपने अज्ञान या मूढ़ता से? कैसे?

क्या इस तरह की जान-पहचान से ही खुद को जानने-पहचानने का दावा करते हैं? या फिर

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बिट्टू का दुःख

 

बिट्टू बहुत दुखी था. पूछने पर बिट्टू ने दुःख का कारण इस तरह बताया, ‘मुझसे कोई सीधे मुंह बात ही नहीं करता. जिसे देखो वह चिल्लाता है, चीखता है, गुस्से में है, कर्कश है, उलटा-सीधा बोलता है, अवांछित बोलता है, गैर-जरुरी बोलता है, अनुपयोगी बोलता है, जो पसंद न आए वह बोलता है, जो नहीं कहा जाना चाहिए वह बोलता है, अप्रिय बोलता है, कड़वा बोलता है. औरों का इस तरह बोलना ही मेरे दुःख का कारण है.’

मैंने बिट्टू से कहा, जाओ ऐसे व्यक्ति या व्यक्तियों का नाम जानकर आओ, जो ‘‘मुश्किल है,’, ‘नहीं होगा,’ ‘नहीं हो सकता,’ ‘नामुमकिन,’ ‘तुमसे न हो पाएगा,’ जैसे वाक्यांश या जुमले इस्तेमाल नहीं करता. सुबह का गया बिट्टू फिर अगले दिन सुबह ही मुझसे मिला. उसकी उदासी देखकर मैं समझ गया कि बिट्टू का दुःख और बढ़ चुका है.

मैंने बिट्टू से पूछा, ‘अच्छा बताओ हमेशा अप्रिय लगने वाली, नापसंद आने वाली, गैर-जरुरी, हृदय को तार-तार कर जाने वाली, असाध्य, अवांछित, अनुपयोगी, गुस्से में कही गई. कर्कश वाणी से बोली गई. चीख अथवा चिल्लकर बोली गई बात या बातों से कौन अप्रभावित रहता है?’ बिट्टू ने कुछ देर सोचकर कहा, ‘फूल, चिड़िया, नदी, धरती और आसमान.’ मैंने कहा, ‘और कोई?’ बिट्टू ने बहुत देर तक सोचने के बाद नकार में सिर हिला दिया. मैंने कहा, ‘फूल, चिड़िया, नदी, धरती, आसमान के साथ स्त्री और शासक, आग और हवा भी किसी को अनसुना नहीं करते, इसलिए ये कभी दुखी नहीं होते और न अपने सानिध्य में आने वाले किसी को दुखी ही करते हैं. लेकिन...’

 (महाराष्ट्र के प्रमुख हिन्दी दैनिकलोकमत समाचारके लिए विविध अवधि में लिखे गए साप्ताहिक स्तम्भ से यहाँ फाल्गुन विश्व के पाठकों के लिए साभार प्रस्तुत).

 

गत पाँच अंकों से  मौलिक चिंतन-परक यह स्तम्भ अब अपने विराम पर पहुँचता है. अगले सप्ताह से पत्रिका पूरी तरह स्थानीयता के वलय एवं आवरण में प्रकाशित होगी. हालाँकि इन पंक्तियों को लिखते हुए मनलॉक डाउनको लेकर आशंकित भी है, लेकिन उम्मीद तो हमेशा बेहतर की ही की जानी चाहिए. मौलिक-चिंतन परक एवं पत्रिका में प्रकाशित अन्य रचनाएं आपको कैसी लगीं? गत सप्ताह से पत्रिका पढ़ते समय आपके मन में हमारे लिए अनेक सुझाव, मशविरे एवं राय भी कायम हुए होंगे. आपसे अनुरोध है कि संक्षेप में अपनी बात आप हम तक पहुंचाएंहमारा पता है - सम्पादक फाल्गुन विश्व, 57-58, द्वारा श्री अखिलेश पांडेय, योगेन्द्र नगर, ब्लू डायमंड स्कूल के पीछे, बोरगांव रोड, नागपुर 440013. महाराष्ट्र. आप इमेल भी कर सकते हैं, पता है,

thefalgunvishwa@gmail.com  धन्यवाद - सं.

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विशेष में इस बार पढ़िए प्रचण्ड प्रद्योत का ज्ञानवर्धक आलेख (यह आलेख साभार उनके ब्लॉग से फाल्गुन विश्व के पाठकों के लिए लिया गया है).

भारतवर्ष में विविध विवाह संस्कृतियाँ

 

पुराकाल से ही पृथ्वी पर विविध संस्कृतियाँ रही हैं और आज भी हैं। किसी विशेष काल में कोई विशेष संस्कृति अधिक प्रभावी रही अथवा आदर्श मानी गई। भारतवर्ष में भी भीतरी व बाहरी अनेक संस्कृतियों का अस्तित्व रहा और उनके श्रेष्ठ व निकृष्ट प्रभाव भी पड़े किन्तु यहाँ के जागरूक मनीषियों ने सदा श्रेष्ठ का वरण तथा निकृष्ट का परित्याग ही किया. स्मृतियों में विवाह-प्रकरण के अन्तर्गत प्रमुख संस्कृतियों की आरम्भिक स्थिति का सांकेतिक उल्लेख हुआ है.

ब्राह्मो दैवस्तथैवार्ष: प्राजापत्यस्तथाऽऽसुर:।
गान्धर्वो राक्षसश्चैव पैशाचश्चाष्टमोऽधम:॥
(मनुस्मृति ३-२१)

 

ब्राह्म संस्कृति

 

आच्छाद्य चार्चयित्वा च श्रुतिशीलवते स्वयम्।
आहूय दानं कन्याया ब्राह्मो धर्म: प्रकीर्तित:॥
(मनुस्मृति ३-२७)

 

श्रुति व शील से युक्त वर को स्वयं बुलाकर, वस्त्रादि देकर व अर्चन करके विधिपूर्वक कन्या प्रदान करना ब्राह्म विधान कहा गया है.

स्पष्ट है कि ब्राह्म संस्कृति में वर को श्रुति (वेद-वेदांग) व शील (ब्रह्मचर्य, सत्यनिष्ठा आदि) से युक्त होना चाहिए. यह ब्राह्मणों की निज संस्कृति थी.

अपने आरम्भिक काल से ही ब्राह्म संस्कृति के ३ कर्म थे –
१. काव्य
२. ज्योतिष
३. भैषज्य

ब्राह्म संस्कृति कविकर्मप्रधान संस्कृति थी जिसमें पुराने काव्य को स्मरण रखना तथा नवीन काव्य का सृजन प्रधान कर्म था. इसी से वेदपाठ की परम्परा विकसित हुई. ‘ब्रह्म’ का अर्थ ‘काव्य’ है. इस संस्कृति में ज्योतिष व भैषज्य (वैद्यक) भी होता था. भैषज्य हेतु बीजों आदि का संग्रह करना और उनका वपन (बोना) भी होता था. ‘विप्र’ का अर्थ ‘बोने वाला’ ही होता है. विप्र पशुओं की सहायता के बिना धान की कृषि करते थे. ब्राह्म संस्कृति में उत्तरायणान्त (ग्रीष्म अयनान्त) से वर्ष का आरम्भ करते थे क्योंकि तब तक धान की बुवाई हो जाती थी. इस संस्कृति में नदी के निकट निवास करने की परम्परा थी. अथर्ववेद ब्राह्म संस्कृति का प्रतिनिधि वेद है.

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फेसबुक से मौलिक विचार / लेखन स्तम्भ अंतर्गत इस सप्ताह पढ़िए मशहूर विचारक, कवि, निबंधकार रमाकांत नीलकंठ का झंकृत करता आलेख... 

साहित्य की फसल और घास की चुनौती

 

जैसे समाज में स्वभाव से नंगे, फूहड़, बदतमीज, जबान पर हर समय मां-बहन की गाली लिए, झगड़े पर उतारू बीमारू प्रकार के सड़े और गलीज़ आदमी पाए जाते हैं वैसे ही साहित्य के सांस्कृतिक क्षेत्र में भी पाए जाते हैं. ठेठ समाज से निकलकर साहित्य के किस दुर्भाग्य से ऐसे लोग उसके बैठकखाने में आ जाते हैं, बताना बड़ा मुश्किल है. हिन्दी जगत का बैठकखाना बड़ा विशाल है. और महान् कवि-लेखकों से हमेशा आबाद रहा है. उसके परिसर में ऐसे शोहदों, निर्वीर्यों, लुच्चों, लफंगों, कायरों, चुड़ुक्कों-चुक्कड़ों की घुसपैठ यों तो पहले भी होती रही है, जिनका अब कंकाल भी नहीं मिलता, किन्तु एक दो पीढ़ियों से उनकी फसल में घास की तरह बड़ी भारी आमद हुई है. जिससे मूल साहित्यिक फसल खेत में थोड़ा बची है बाकी जगह घासों ने ले ली है.

यह तो हुआ ही कि समय पर उन्हें उखाड़ा नहीं गया, अखरने वाली सबसे कातर बात यह हुई कि बचे रह गए बुजुर्ग कवि-लेखकों ने अपने बुढ़ापे को देखते हुए, उन फसलों की जन्मजात दुश्मन, उर्वरता का सारा रस चूस लेने वाली घासों को बुढापे की लाठी समझकर उनकी खुशामद भी की. लिहाजा बड़ा अनर्थ 

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कन्हानवारी में पढ़िए विवेक पाटिल की कलम से ... 

शंका निवारण ही ‘शंका’ के घेरे में

 

महिलाओं की समस्याओं का समुचित निपटारा हो सके, इसीलिए सरकार ने स्थानीय निकायों में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण दिया. तदानुसार निकाय प्रमुख के पदों पर भी महिलाओं को आरक्षण का लाभ प्राप्त हुआ. स्थानीय शासन में तैतीस प्रतिशत की सहभागिता के बाद भी क्या महिलाएं, अपने क्षेत्र की महिलाओं के लिए जन-हितकारी या जन-कल्याण के काम कर पायीं?

कन्हान-कान्द्री क्षेत्र में अगर कोई महिला लघुशंका निवारण के लिए एक अदद सार्वजानिक शौचालय की खोज करे तो समझा जा सकेगा कि कन्हान-कान्द्री क्षेत्र की दो महिलाएं स्थानीय शासन की नियंता हैं लेकिन अपने क्षेत्र में अदद सार्वजानिक शौचालय...

एवं 

प्रतीक्षा के पुल की आत्मकथा

 


‘2014 में तत्कालीन सांसद द्वारा घोषणा किए जाने के बाद से ही मेरे आकार की कल्पना होनी शुरु हो गई थी. उसी साल केंद्र में चुनाव हुए और वहाँ दूसरे दल की सरकार बनी. हालाँकि जल्दी ही केंद्र की सरकार ने मुझे साकार करने के काम के ठेके जारी कर दिए लेकिन भला हो कन्हान के राजनेताओं का जिन्होंने मुझे आजतक साकार नहीं होने दिया. मुझे बनाने के लिए ठेकेदार को रेत, पानी, राख सब मुफ्त में उपलब्ध थे, फिर भी ठेकेदार ने अपने रुतबे को कभी कम नहीं होने दिया और साधन तथा संसाधन का रोना रोकर मेरे बनने को सदा बीच नदी में लटकाए रखा है. इन दिनों मुझे देखकर आप सोचेंगे कि...

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साथ ही महासंवाद द्वारा प्रेषित समाचार पढ़िए...

हिन्दी भाषा का प्रचार-प्रसार अपनत्व से करें : राज्यपाल

नया ज्ञानोदय’, ‘व्यंग्य यात्रा’ एवं ‘हंस’ मासिक पुरस्कृत

 


मुंबई (महासंवाद); ‘हिन्दी सम्पूर्ण देश एवं हृदय को जोड़ने वाली भाषा है. भारत के साथ नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तान, मॉरिशस सहित अनेक देशों के लोगों हिन्दी भाषा सहजता से समझती है. हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार का काम अपनत्व से करते हुए इस भाषा को बढ़ावा देना चाहिए.’ राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने हाल ही मुंबई में आयोजित समारोह में यह प्रतिपादित किया. वह हिन्दुस्तानी प्रकार सभा की ओर से दिए जाने वाले ‘महात्मा गाँधी हिन्दी पत्रिका प्रकाशन पुरस्कार’ समारोह में पुरस्कार प्रदान करने के बाद मनोगत व्यक्त कर रहे थे. हिन्दुस्तानी प्रचार सभा की स्थापना महात्मा गाँधी ने 1942 में की थी. संस्था की ओर से प्रतिवर्ष यह पुरस्कार दिया जाता है.

दिल्ली से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय’ को प्रथम, ‘व्यंग्य यात्रा’ को द्वितीय तथा ‘हंस’ को तृतीय पुरस्कार प्राप्त हुआ. देश भर से छियालीस पत्रिकाओं के प्रकाशकों की ओर से प्राप्त प्रविष्टियों में से तीन उत्कृष्ट का चयन किया गया.



राज्यपाल श्री कोश्यारी ने कहा कि ‘अंग्रेजी आज के समय की जरुरी भाषा बनी हुई है, लेकिन बच्चों की प्राथमिक शिक्षा उनकी मातृभाषा या हिन्दी, मराठी, बांग्ला जैसी प्रादेशिक भाषा में ही दी जानी चाहिए. सभी को ‘स्वदेशी’, ‘स्वभाषा’ एवं ‘स्वसंस्कृति’ के संवर्धन की ओर ध्यान देने की जरुरत है. महात्मा गाँधी, स्वामी दयानंद, देश के विभिन सैन्य दल, विविध संस्थाएं, संगठन एवं हिन्दी फिल्म दुनिया के हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार में अदभुत योगदान दिया है. हिन्दी भाषा के विकास में उर्दू भाषा का भी बड़ा योगदान है.’

हिन्दी प्रचार सभा के मानद कोषाध्यक्ष फिरोज पैच ने संस्था के कार्यों की जानकारी दी. नया ज्ञानोदय के संचालक मुदित जैन, व्यंग्य यात्रा के संस्थापक प्रेम जनमेजय एवं हंस की संपादक रचना यादव ने भी अवसर पर विचार व्यक्त किए. हिन्दी प्रचार सभा के मानद कोषाध्यक्ष अरविन्द देगवेकर, साहित्यिक मंजू लोढ़ा, संचालक संजीव निगम तथा हिन्दी भाषा के साहित्यकार, लेखक एवं अन्य क्षेत्रों के मान्यवर उपस्थित थे.

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पुस्तक ‘हिंदूइस्म बियॉन्ड रिचुअलिस्म’ नयी पीढ़ी के लिए प्रेरणादायक : उपमुख्यमंत्री

 


मुंबई (महासंवाद); ‘समाज को एकजुट रखने का सन्देश देने वाली पुस्तक ‘हिंदूइस्म बियॉन्ड रिचुअलिस्म’ नयी पीढ़ी के लिए प्रेरणादायक साबित होगी.’ यह उम्मीद हाल ही राज्य के उपमुख्यमंत्री अजित पवार ने महाराष्ट्र सरकार के गृह विभाग के प्रधान सचिव विनीत अग्रवाल की पुस्तक लोकार्पण के लिए सह्याद्रि अतिथिगृह में आयोजित समारोह में व्यक्त की. उन्होंने यह भी उम्मीद जताई कि इस पुस्तक के पाठकों को नई दिशा मिलेगी. विनीत अग्रवाल की सराहना करते हुए श्री पवार ने कहा कि ‘वह कर्तव्यदक्ष अधिकारी हैं एवं बहुत विचारपूर्वक एवं परिश्रम से उन्होंने यह पुस्तक तैयार की है. सभी को उनकी यह पुस्तक पढ़नी चाहिए. अनेक क्षेत्र में कार्यरत रहते हुए भीतर के लेखक को जिन्दा रखते हैं इसलिए श्री अग्रवाल की तीन पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है.’

मनोगत व्यक्त करते हुए विनीत अग्रवाल ने कहा कि समाज में सक्रिय रहते हुए अनेक प्रश्नों से सामना हुआ, उनके उत्तर खोजने की कवायद इस पुस्तक की प्रेरणा है. इशोपनिषद, सांख्ययोग पर भाष्य के साथ 251 पृष्ठों की इस पुस्तक में 30 अध्याय हैं. साथ ही प्रश्नोत्तर भी हैं.

समारोह में गृह विभाग के अवर मुख्य सचिव सीताराम कुंटे, मुख्यमंत्री के अतिरिक्त सचिव आशीषकुमार सिंह, मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव विकास खारगे सहित अन्य मान्यवर भी उपस्थित थे.

विनीत अग्रवाल भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी हैं. राज्य में विविध पदों पर अपनी सेवाएं देने के अलावा वह सीबीआइ में भी जिम्मेदारी का निर्वहन कर चुके हैं. उन्हें कर्तव्यपरायणता के लिए राष्ट्रपति पुलिस पदक से भी सम्मानित किया जा चुका है. गढ़चिरोली के पुलिस अधीक्षक के रुप में कार्य करते हुए उन्होंने वहाँ के अपने अनुभवों पर आधारित पुस्तक ‘रोमांस ऑफ अ नक्सालाइट’ प्रकाशित की. उनकी यह किताब चर्चित रही है. उनका काव्य नाट्य ‘ऑन द ईव ऑफ कलियुग’ भी प्रकाशित हो चुका है.

 

 



  


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