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फाल्गुन विश्व का चतुर्थ अंक प्रकाशित

 आप पाठकों के अपार प्रेम और समर्थन से 'फाल्गुन विश्व' अत्यंत अल्प समय में गतिमान हो गया है. चतुर्थ अंक प्रकाशित हो गया है. आप नीचे दिए गए लिंक से चतुर्थ अंक डाउनलोड कर सकते हैं...




https://drive.google.com/file/d/1_j5q2qBObeqBVqEpq6ZpQ0Zv75M1a62r/view?usp=sharing


इस बार के अंक में आप पढ़ेंगे...

पृष्ठ दो पर ...

डर का कारण झूठ 

घड़ी में तो अभी आधी रात का वक़्त हो रहा है, फिर इस समय सूरज कैसे निकल आया माँ?’ मासूम बच्ची ने आँखें मीचते, दीवार पर लगी घड़ी देखने और कमरे की खिड़की से बाहर, बारी-बारी देखते हुआ अपनी बगल में खड़ी माँ से पूछा था. नौ साल की बिटिया कहीं हकीकत जानकर डर न जाए, इसलिए मनोविज्ञान में डॉक्टरेट माँ ने कहा, ‘नहीं बेटी, अभी आधी रात का ही वक्त है, उधर दूर जो अपनी खिड़की से उजाला दिखाई दे रहा है, वह सूर्य के उगने से नहीं है, बल्कि वहाँ पर किसी ने बहुत बड़ी लाइट जलाई है रौशनी के लिए, वहाँ शायद किसी का कुछ गुम हो गया होगा और नहीं मिल रहा होगा इसलिए बड़ी सी लाइट जलाकर ढूँढ़ने की कोशिश हो रही है.’ बच्ची ने माँ की बात सुनकर जम्हाई ही और फिर सोने चली गयी. बच्चे और किसी पर भरोसा करें न करें अपने माता-पिता पर जरुर करते हैं. वहाँ दूर दरअसल वृहद् वन क्षेत्र है और जो रौशनी बच्ची ने अपने घर की खिड़की से देखा था, वह दावानल की थी.

वह बच्ची, इस समय करीब बीस-इक्कीस बरस की है. नौ साल की उम्र में जिस आग को लाइट की रौशनी की तरह उसकी माँ ने समझाया था, उस तरह की किसी भी विशाल आग को वह बच्ची जो युवती हो चुकी है, ‘किसी के गुमे सामान की खोज में जलाई गयी बड़ी लाइट कहती है.’ हालाँकि वह अब इतनी बड़ी हो गयी है कि जान चुकी है कि जिसे उसने बड़ी लाइट समझना सीखा था, वह असल में आग है, ऐसी आग, जिसमें सबकुछ जलकर भस्म हो जाता है, सबकुछ...

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पृष्ठ तीन पर ....

स्मृतियों में वसंत

 

क्या आपने खुदे हुए पहाड़ या कटे हुए जंगल देखे हैं? अच्छा, एकाध पेड़ को कटकर धरती पर गिरे हुए तो देखा होगा. आपको कुछ लगा? किसी तरह की पीड़ा, दुःख, चिंता आपने महसूस की या नहींजिनकी स्मृतियों में वसंत नहीं होगा, उन्हें प्रकृति का किसी भी तरह का विनाश विचलित नहीं करेगा

वसंत के मौसम में धरती दरअसल अपनी समस्त संभावना को प्रगट करती है. होने की संभावना. प्राप्ति की संभावना. सृजन की संभावना. समाहित की संभावना. सहभागी करने की संभावना. सपर्पण की संभावना….

वसंत ऋतु का विशिष्ट मनोविज्ञान है. वसंत से शरद तक यदि समस्त ऋतुओं के क्रम को देखें तो सृजन से विनाश तक की कथा अपने आप समझ जाएगी. सृजन का अंत विनाश और विनाश का रुपांतरण पुनश्च सृजन में

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पृष्ठ चार से छह पर फाल्गुन विश्व एक्सक्लूसिव 

क्या नूर और मुजीब को इंसाफ मिलेगा ?

शिक्षा के जरिए अपने लोगों के बीच सामाजिक-आर्थिक एवं मानसिक जागरुकता लाने में जुटा एक व्यक्ति, दूसरा, मोहब्बत, ख़ुलूस और यकीन की जिन्दा मिसाल. एक पेशे से अध्यापक, दीन-दुनिया को अँधेरे से उजाले की तरफ ले चलने की कोशिश और इरादे में मुब्तिला, दूसरा पान-फ़रोशी के जरिए अपनी जिन्दगी की गृहस्थी को आधार देने के साथ-साथ, आमजन को सेहतमंद बनाए रखने की नीयत को अपने कर्तव्य पथ से लगातार सींचता हुआ. एक का नाम नूर मोहम्मद अंसारी, दूसरे के नाम मुजीबुर्रहमान अंसारी. दोनों का जीवन पथ अपने दायित्व से लगातार संचालित होता हुआ कदम-दर-कदम आगे बढ़ रहा था कि एक तीसरे व्यक्ति की महत्वकांक्षा...

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पृष्ठ सात से नौ पर अवसर विशेष 

भारतीय उपमहाद्वीप का उत्सव है बसंत 

वसंत पंचमी पर सरस्वती पूजन की परंपरा रही है. दरअसल ऋतुराज वसंत के आगमन की तैयारियों से जुड़ा हुआ है उत्सव. यह उत्सव भारत समेत समस्त भारतीय उपमहाद्वीप में सोल्लास मनाया जाता है. भारत के लिए कहा जा सकता है कि यह उत्सव मनाया जाता था. आजकल चुनिन्दा परिवार ही इस उत्सव से संलग्न दिखाई देते हैं. जबकि इस उत्सव का आम भारतीय के मनोविकास में बहुत महत्व रहा है. मनुष्य जब तक प्रकृति से सीखता रहा है अथवा जब तक प्रकृति से सीखता रहेगा तब तक समस्याओं, दिक्कतों, परेशानियों, बाधाओं और व्यवधानों के जीवन में आमद के बावजूद हिम्मत, भरोसे, प्रेम और आनंद से लबरेज रहेगा.  वसंत जीवन्तता का प्रतीक है. वसंत जीवन का सलीका है. वसंत सृजन का आधार...

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पृष्ठ दस -ग्यारह पर 

पुष्पेन्द्र फाल्गुन के मौलिक विचार 'ध्वनि कीमिया'

एक मित्र ने पूछा, ‘एकदम से लोकप्रिय होने का कोई सूत्र है?’

इस सवाल पर हँसना चाहता था लेकिन बोल पड़ा, ‘पांच-सात बच्चों को लेकर नारे लगवाइए और इस दृश्य का वीडियो बनाकर अपने परिचितों से साझा कीजिए..., मोबाइल है ही आपके हाथ में...’

मुझे लगा था वह मित्र दो-चार गालियाँ देकर चलता बनेगा, लेकिन उसने अत्यंत नादानी से पूछा, ‘नारे क्या लगवाने हैं? मतलब नारे लिखकर दे सकते हैं क्या आप?’

मुझे लगा कि खुद ही वहां से भाग जाऊं, लेकिन मैं बोल पड़ा, ‘नारे लगवाओ – ‘’नमस्ते करो-ना / नहीं होगा कोरोना...” इसमें ‘करो-ना’ शब्द को ऐसी शैली में बुलवाना कि ‘करो-ना’ में ‘कोरोना’ जैसी ध्वनि सुनाई पड़े...’

ध्वनियों के रसायनिक विपर्यास से प्रतिरोध उपजाना और फिर उसे सृजन के नाम पर खपाना, आज साहित्य के पास इसके इतर और कोई कीमिया है?

सापेक्षता-निरपेक्षता की ध्वनि के जरिए...

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पृष्ठ  बारह पर 

वर्धा के महारोगी सेवा समिति की न्यासियों की नियुक्ति पर आपत्ति 

वर्धा स्थित महारोगी सेवा समिति में हाल ही हुई न्यासियों की नियुक्तियों पर वर्धा के ही आम नागरिकों ने आपत्ति दायर की है. नागपुर स्थित धर्मादाय आयुक्त कार्यालय में 11 फरवरी को दायर आपत्ति के अनुसार हाल ही हुई महारोगी सेवा समिति में समस्त न्यासियों की नियुक्ति को रद्द करने एवं स्थानीय जनों को समिति में बतौर न्यासी नियुक्त करने की मांग की गई है.

प्राप्त जानकारी के अनुसार सचिन शंकरराव म्हैसकर, चंद्रशेखर काशीनाथ मडावी, सुशील जनार्दन वडतकर एवं प्रवीण देवचंद ढाले ने धर्मादाय आयुक्त कार्यालय में प्रत्यक्ष पहुंचकर वर्धा के महारोगी सेवा समिति में बतौर न्यासी नियुक्त डॉ. विभा देवेन्द्रकुमार गुप्तासयाजी माधवराव भोंसले, ओमप्रकाश द्विवेदी, सत्यपाल अरोरा, अशोक गुलाबराव पावड़े, गौरीशंकर कन्हैयालाल तिबड़ीवाल, करुणा वसंत फुटाने, विजय प्रभाकर दीवान, मालती दिनकरराव देशमुख, डॉ. विनोद मोतीलाल अदलखिया, डॉ. रेजी थॉमस, अजय कुमार, मणिलाल रामलखन पाठक, कौस्तुभ विकास आमटे एवं अविनाश कृष्णाजी सवजी की नियुक्तियों पर आपत्ति जताई है. दरअसल इन नव-नियुक्तियों पर आपत्ति प्रगटन के लिए  धर्मादाय आयुक्त कार्यालय की तरफ से स्थानीय दैनिकों में जाहिर सूचना प्रकाशित की थी.

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पृष्ठ तेरह पर पढ़िए 

डॉ. गोविन्द प्रसाद उपाध्याय की कहानी  'लॉकडाउन के भूत'

रत्ना काकी ने अपनी दुकान की पोटली सिर पर उठाई ही थी कि विक्रम चिल्लाया, ‘’कहाँ मर रही है, देखती नहीं है सब तरफ लॉकडाउन लगा है.’’

रत्ना काकी ने गुस्से से उसे ताका और बोली, ‘’पता है शहर में लॉकडाउन है, परन्तु, पेट की चक्की में थोड़े ही लॉकडाउन लगा है. जिस औरत का मर्द पियक्कड़ और बेटा तुम जैसा निठल्ला हो,उसे तो पेट की आग बुझाने हाथ-पैर मारने ही पड़ेंगे. अपने अड्डे पर जाकर देखती हूँ, शायद कॉलेज खुला हो, कोई तो ग्राहक आएगा.’’

रत्ना काकी दुहरी देह की प्रौढ़ महिला थी. वह नर्मदा महिला महाविद्यालय के गेट के बाजू में फुटपाथ पर छोटे-मोटे सामानों की दुकान लगाती थी. कंघी, हेयर बैंड, रिबिन, पिन, ऑय ब्रो पेन्सिल, रुमाल, सस्ता सा नेल पॉलिश, बर्तन घिसने के लोहे एवं प्लास्टिक के पैकेट, प्लास्टिक चाय छन्नी, पेन्सिल, विविध प्रकार की लीड, रबर, बच्चों के झुनझुने, नकली चैन और जाने क्या-क्या, जो पांच रुपए में बेचे जा सकें.

वह अपनी फुटपाथ दुकान के दोनों कोनों पर दो बोर्ड रख देती थी. जिसमें लिखा था, - हर माल मिलेगा-पांच रुपए. पांच रुपए वाली उसकी स्कीम सफल थी. पहले वह महंगे सामान रखती थी परन्तु लोगों की मोलभाव करने की आदत से उसे सख्त नफरत थी. भाव-ताव करने की जिल्लत से बचने उसने नया रास्ता निकाला. ‘’ हर चीज पांच रुपए.’’

अब उसे बाजार में चीजें खरीदने, जरुर ज्यादा माथाफोड़ी करनी पड़ती है कि पांच रुपए में बेंचकर भी दो पैसे बच जाए.

रत्ना काकी सर पर पोटली रखे, सूनी सड़क पर चली जा रही थी. रोज की भीड़भाड़, गाड़ियों की आवाजों का शोर, भीड़ की चिल्ल-पौ नदारद थे. यकायक उसे भय सा लगने लगा. आदमी के मन के स्थिति भी बड़ी विचित्र होती है. वह बेवजह, खुश भी हो सकता है और भयाक्रांत भी. कभी-कभी सायरन बजाती पुलिस की गाड़ियाँ सन्नाटे को तोड़ते निकल जाती. बचपन में रत्ना काकी को भूतों से बहुत डर लगता था. जहाँ एकांत हुआ, सन्नाटा छाया, उसे भूत का भय सताने लगता. उसने बाद में सुना और माँ ने भी समझायाभय को भूत हवा को जाड़ो  / जब देखो तब आगे ही ठाड़ो,  माँ कहती थी भूत होते ही नहीं है, हमारे मन का वहम, भय ही भूत है.अब तो जिन्दगी के थपेड़े खा-खाकर, वह इतनी मजबूत हो गई है कि उसे किसी बात का डर नहीं लगता. दो भूत तो वह घर में पाल रही थी.

रत्ना के पिता कम पढ़े-लिखे थे. अनाज के छोटे से दुकानदार थे. पर वह दामाद पढ़ा-लिखा, खाते-पीते घर का चाहते थे. किसी रिश्तेदार ने बतायामेरी पहचान का परिवार है, लड़का कॉलेज में पढ़ रहा है, खुद का मेन रोड पर शहर से लगकर मकान है. बात झूठ भी नहीं थी. रत्ना का ही दुर्भाग्य था या अख्खड़ स्वभाव कि सास से नहीं पटी. दरअसल हुआ यूँ कि एक दिन उसने अपनी सास को ससुर से कहते सुन लिया, ’कहाँ यह भैंस, मेरे फूल से बेटे के गले में बांध दी.’

रत्ना बचपन से हृष्ट-पुष्ट जरुर थी लेकिन बदसूरती तक बेडौल नहीं थी. बस चढ़ गया गुस्सा, भिड़ गई सास से, झगड़ा तभी खत्म हुआ जब दोनों को घर से बेदखल कर दिया गया. बेचारे पति ने बहुत हाथ-पैर मारे, परन्तु कहीं नौकरी नहीं मिली. मजबूरन किराए का ऑटो लेकर चलाने लगा. धीरे-धीरे गृहस्थी जम रही थी कि ऑटो वालों की संगत में उसने पीना शुरु कर दिया. शादी के चार साल बाद विक्रम पैदा हो गया. बेचारे माँ-बाप ने बहुत सहयोग दिया. लेकिन कब तक मायके में रहती और पिता, चाचा, भाई, कब तक आर्थिक बोझा उठाते...

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पृष्ठ चौदह पर पढ़िए 

विवेक पाटिल की परख 'कन्हानवारी'

कन्हान शहर का इतिहास भले ज्यादा पुराना न हो लेकिन कन्हान नदी का उल्लेख महाभारत एवं वाल्मीकि रामायण जैसे ग्रंथों में भी मिलता है. उस दौर में इसे कर्णिका के नाम से जाना जाता था. कोसला, चालुक्य, मौर्य, गोंड एवं मराठा साम्राज्य के दौर को भी कन्हान नदी के पानी ने खूब देखा-सहा है. मध्य भारत की प्रमुख नदी कन्हान का पानी कभी नहीं सूखता है, लेकिन कन्हान नदी के तीर बसे कन्हान शहर की व्यवस्था संचालित करने वाले एवं इस व्यवस्था की देखरेख करने वाले निकाय के सत्ताधारियों, विपक्ष के राजनीतिकों के आँखों का पानी शायद सूख चुका है. जनहित के जिन मुद्दों पर पक्ष-विपक्ष को मिलकर सामेतिक प्रयास करना चाहिए, उन मुद्दों तक को राजनीतिक मुलम्मा चढ़ाकर आमजन की जिन्दगी से ही जैसे दूर कर दिया गया.

पीने के पानी को मुद्दा बनाकर आमजन में चर्चित हुई और इसी चर्चा की वजह से जुझारु नेता का मान पाने वाली वर्तमान नगराध्यक्ष से आमजन को बहुत उम्मीद थी कि और वह कुछ करें या न करें, पीने के पानी के लिए जरुर वह जनहितकारी कदम उठाएंगी, अफसोस कि अभी तक कुछ भी ठोस कर पाने में वह सफल नहीं हुई. कारण तो वही बेहतर जानती हैं, आमजन तो आज भी पीने का पानी पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, उनकी दिनचर्या में से जाने कितना वक्त बस पीने के पानी के इंतजाम में खर्च हो जा रहा है और पानी जो मिल रहा है पीने के लिए, वह दूषित ही दूषित.

हमारे देश में नदियों को माँ कहा जाता है. नदी के किनारे प्यासे रहने वाला मुहावरा लगता है कन्हान के लिए ही बना है. समीपस्थ कोयला खदान संचालित करने वाली वेस्टर्न कोल फील्ड्स नामक अर्द्ध सरकारी- तारांकित कंपनी को कन्हान नगर वासियों को पेयजल उपलब्ध कराने के शासनादेश हैं, बावजूद इसके माँ कर्णिका, कन्हान नगर वासी कब तक तुम्हारे किनारे प्यासे रहकर किसी मुहावरे का उदाहरण बने रहेंगे? कन्हान के राजनीतिकों की आँख कभी यहाँ की समस्या से नम भी होगी या नहीं? या फिर पानी-पानी करते हुए नयी पीढ़ी भी बूढ़ी हो जाने को अभिशप्त रहेगी? क्या तुम इन सवालों का जवाब जानती हो माँ कर्णिका?

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पृष्ठ पंद्रह पर पढ़िए...

आध्यात्मिकता 

इस बार आखिरी बात इस जरुरी सवाल से कि आखिर अध्यात्म की जरुरत होनी ही क्यों चाहिए और यदि होनी चाहिए तो किसे इसकी जरुरत होनी चाहिए? इस सवाल की जरुरत इसलिए कि आज का मनुष्य बेहद चालाक और धूर्त प्राणी होने को ही अपना होना समझता है. हर बात, हर विचार को अपनी सुविधा से अपने अनुकूल-प्रतिकूल बना लेना ही वह न सिर्फ अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता है, बल्कि अपने ज्ञान की कसौटी का आधार भी.

कुछ रोज पहले एक दम्पत्ति मेरे पास परामर्श के लिए आए. आए कि बजाए कहना होगा कि लाए गए. पति की उम्र करीब पैंसठ साल और पत्नी करीब साठ वर्ष की रही होंगी. उनके बच्चे अपने माता-पिता के दैनिक झगड़े से त्रस्त थे, बच्चों का मानना था कि यदि उनके माता-पिता रोज-रोज लड़ना बंद कर दें तो उनका पूरा परिवार सुकूनदेह शांति का लाभ ले पाएगा. अपने माता-पिता को लेकर उनके बच्चे ही मेरे पास आए थे.

दोनों बुजुर्गवार से बड़ी देर तक बात करने पर मेरी समझ में आ गया था कि दरअसल एक-दूसरे से लड़ना-झगड़ना ही उनके जीने का आधार था. ऐसा नहीं कि उनकी लड़ाई बंद नहीं कराई जा सकती थी लेकिन इसके विकल्प में जो कुछ भी सुझाया जाता, उनके बच्चे उसे पूरा कर पाने में पूर्णतः असमर्थ थे. मुझे कोई उपाय सुझाता न देख उस दम्पत्ति के बड़े बेटे ने कहा, ‘कुछ दिन पहले हमने टीवी पर एक ज्योतिषी का शो देखा था, उसमें ज्योतिषी.... 

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