एकला चलो की हाक ही मेरे जीवन की सबसे गतिमान कड़ी है. जब भी साथ-संगत या सहयोग के लिए रुका, जैसे सबकुछ गतिहीन हो गया. मेरे साथ चलने की उर्मी औरों में बने भी तो कैसे? किसी भी तरह से मैं न उनकी अपेक्षाओं-आकांक्षाओं की पूर्तता का साधन बन सकता था, न ही मुझसे उन्हें किसी तरह की सुख-ख़ुशी की प्राप्ति हो सकती थी. तो होता बस इरादों और दिशाओं का टकराव... शुरू होता ऐसा द्वंद्व कि सहयोग या सहयोगी तलाशते-तलाशते मैं घूमकर उसी बिन्दु पर खुद को खड़ा पाता जहाँ अकेला खड़ा था.
इस बार न सिर्फ दृष्टिकोण बदला है बल्कि दृष्टि भी बदल गयी है. अपनी तरफ अब जरा गौर से देखने लगा हूँ. खुद को चीन्हने-पहचानने लगा हूँ. अब बिलकुल भी भय नहीं लग रहा है. इस दुनिया में अकेले आए थे. जाना भी अकेले है तो फिर ये साथ-संगत, सहयोग-सहयोगी की क्या बला है भाई!
इस बार तलाश नहीं है. हाँ आमंत्रण सभी के लिए है. आमंत्रण सभी को है. आप करीब आएं या दूर से देखें या फिर आँखें मूँद लीजिए..., सबकुछ का स्वागत है...
ईश्वर ने चाहा तो बहुत ही शीघ्र हम प्रत्येक रविवार आपके साथ संवाद कर रहे होंगे...
हाँ उसके पहले यह विशेषांक होगा ही होगा आप सबके हाथ... हाँ दीपावली की जगह उस पर नव-वर्ष विशेषांक छपा हुआ होगा...
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