1985 में एक कहानीकार ने कहानी लिखी 'भैया एक्सप्रेस.' प्रवासी मजदूरों के जीवन-चक्र का वेध लेती इस कहानी का आज के दौर में पाठ को सबके लिए अनिवार्य किया जाना चाहिए. कोरोना वायरस के नाम पर तालाबंदी और उसके बाद देश भर से मजदूरों के बीच भय और असुरक्षा के निर्माण की प्रक्रिया के मद्देनजर अभी तीन-चार दिन पहले हमने देश की राजधानी आनंदविहार में जो चित्र देखा और इनदिनों देश के सभी हिस्से से प्रवासी मजदूरों के बारे में जो सूचनाएं और ख़बरें आ रही हैं, उनके आलोक में हिन्दी भाषा के अप्रतिम कहानीकार अरुण प्रकाश की कहानी 'भैया एक्सप्रेस' आप भी पढ़िए और कुछ नहीं तो इन मजदूरों की संवेदनाओं से तो जुड़िए...
कहानी - ''भैया एक्सप्रेस''
कहानीकार- अरुण प्रकाश
प्रवासी मजदूर की पीड़ा का प्रतीकात्मक अंकन - चित्रकार नामालूम, छायाचित्र साभार- साचीआर्ट्, गूगल इमेजेस |
इज
ही ये भैया?
ट्रेन
की रफ्तार तेज होती जा रही थी। दरवाजे से लटके रामदेव के लिए धूल भरी तेज हवा में
आँख खुली रखना मुश्किल था। कब तक लटका रहेगा बन्द दरवाजे पर? रामदेव ने दरवाजे पर
जोर से थाप मारी। उसके कन्धे से लटकता झोला गिरते-गिरते बचा।
कुछ
देर बाद दरवाजा खुला। वह सँभलता अन्दर घुसा और दरवाजा भिड़ाकर डिब्बे के गलियारे
में गमछे से मूँगफली के छिलके और सिगरेट के टोंटों को हटाने लगा। दरवाजा खोलनेवाले
फौजी ने घृणा से मुँह बिचकाया ‘‘भैणचो…मरने चले आते हैं! ये
रिजरवेशन का डिब्बा है। तेरा रिजरवेशन है?’’
रामदेव
चुप! अठारह साल के साँवले, पतले
रामदेव के लिए यह पहली लम्बी यात्रा थी। अब तक उसने तिलरथ के अगले स्टेशन बरौनी तक
ही रेल यात्रा की थी। रिजरवेशन से उसका पाला ही नहीं पड़ा था। पहली दफा वह बिहार तो
क्या अपने जिले से भी बाहर निकला था। अपने भाई विशुनदेव से उसने जरूर सुन रखा था
कि पंजाब जाने में क्या-क्या परेशानी होती है। दिल्ली होकर पंजाब जाने में सुविधा
होती है। और, आसाम
मेल दिल्ली जाती है। बरौनी स्टेशन पर डिब्बे में लोग बोरे में सूखे मिर्च की तरह
ठूँसे जाते थे। आखिर ट्रेन खुल गई तो जो डिब्बा सामने आया, उसी में दौड़कर लटक गया
था।
‘‘टिकट
है!’’ रामदेव ने बमुश्किल कहा।
‘‘टिकट
होने से क्या होता है? यह
रिजरवेशन का है, समझे?’’
अब
रामदेव क्या करे, चुप, डरी आँखों से फौजी को
देखता रहा। पुरानी बेडौल पैंट और हैंडलूम की बेरंग शर्ट पहनकर रामदेव अपने मुहल्ले
में ही आधुनिक होने का स्वाँग कर सकता था। इस नई दुनिया में सारी चीजें अचम्भे से
भरी थीं।
कुरते
और शलवार में लिपटी, सामने
के बर्थ पर लेटी औरत ने अंग्रेजी उपन्यास को आँखों के सामने से हटाया और उस फौजी
से पूछा, ‘‘सिविल कम्पार्टमेंट इज लाइक धर्मशाला…इज ही ए भैया?’’
‘‘हाँ!
लगता तो है!’’ फौजी भुनभुनाकर रामदेव की ओर मुखातिब हो गया,
‘‘तुमको
कहाँ जाना है?’’
‘‘पंजाब।’’
चित्र साभार - माइग्रेंट फार्मर वर्कर्स सोशल मूवमेंट |
रामदेव
को लगा कि वह यहाँ बैठा रहा तो इन बड़े लोगों की नजर में चढ़ा रहेगा। वह उठा और
बाथरूम के सामनेवाले गलियारे में अंगोछा बिछाकर झोले का तकिया बनाकर लेट गया।
ट्रेन में घुसने से लेकर पिछले एक सप्ताह तक के दृश्य उसकी आँखों के सामने घूम गए।
दसवीं
का इम्तिहान खत्म होते ही माई पंजाब जाने-आने के लिए पैसे का इन्तजाम करने लगी थी।
गाँव का कोई आदमी मार-काट की वजह से पंजाब जाकर उसके भैया विशुनदेव को ढूँढ़ने को
तैयार नहीं था। कई लोगों से मिन्नत करने के बाद, माई रामदेव को ही पंजाब
भेजने पर तैयार हो गई। पैसों की समस्या साँप की तरह फन काढ़े फुँफकार रही थी। पुश्तैनी
पेशा- अनाज भूनने में क्या रखा है? कनसार में अनाज भुनवाने
लोग आते नहीं। मकई की रोटी अशराफ लोग खाते नहीं। दाल इतनी महँगी है कि लोग चने की
दाल बनवाएँगे कि कनसार में चना भुनवाकर सत्तू बनवाएँगे? उस पर इतनी मेहनत गाँव
के बगीचों, बँसवाड़ियों
में सूखे पत्ते बटोरकर जमा करो, उसे जलाकर अनाज भूनकर
पेट की आग ठंडा करो। किसी तरह एक शाम का भोजन जुट पाता। आखिर माई उपले थापकर, गुल बनाकर बेचने लगी
थी। तब किसी तरह भोजन चलने लगा। लेकिन कोई काम आ पड़ता तो कर्ज लेने के अलावा कोई
रास्ता नहीं बचता था। इस बार भी पंडितजी ने ही पैसों की मदद की। भैया की शादी में
कर्ज बढ़ा तो मुश्किल हो गई। मूल तो मूल, सूद सुरसा की भाँति
बढ़ने लगा। आखिर भैया को थाली-लोटा, कम्बल, वंशी लेकर कमाने पंजाब
जाना पड़ा। वहाँ से वह पैसा भेजता तो माई सीधा पंडितजी को जाकर देती। कर्ज चुकने को
ही था कि अचानक सबकुछ बन्द।
पंजाब
में खून-खराबे की खबर मिलती तो माई के साथ-साथ रामदेव का भी दिल डूबता। माई को
पड़ोसी ताने मारते। इतना ही दुःख था तो खून-खराबे में बेटे को कमाने पंजाब काहे
भेजा? अगर
विशुनदेव पंजाब नहीं जाता तो वे सब बेघर हो जाते। जनार्दन उनके घर की जमीन खरीदने
की ताक में था। पंडितजी का तगादा तेज हो रहा था। घर ही बचाने-बसाने विशुनदेव को
पंजाब जाना पड़ा था। बहू आती तो कहाँ रहती, क्या खाती? नई जिन्दगी के कोंपल को
माई कैसे मसलने देती? भरे
मन से माई ने विशुनदेव को पंजाब जाने दिया था। सब ठीक-ठाक होता जा रहा था कि अचानक
सबकुछ बन्द।
चित्र साभार- पिनइंटरेस्ट.कॉम, गूगल इमेजेस |
लेटे-लेटे
रामदेव ने कमीज की चोर जेबी में हाथ डाला। जेबी में रेलवे टिकट, भाई का पतावाला
पोस्टकार्ड और पैसों को छूकर उसे इत्मीनान हो आया। झोले का तकिया ठीक से जमाकर
उसने आँख बन्द कर सोने की कोशिश की। ट्रेन की खटर-पटर, गलियारे में फैली बदबू
थी ही। डर भी था और इतना था कि नींद में भी पंजाब-सी उथल-पुथल थी।
विशनदेव!
ऐ विशनदेव!
भैया
पंजाब से पिछली दफा लौटा तो वहाँ के किस्से खूब सुनाता था। माई भी रोज रात उससे
पंजाब के बारे में पूछती थी।
‘‘रोटी
खाने? भात
नई मिलै छौ?’’
‘‘माई, ऊ लोग सब खाना के रोटी
कहै छै! इ बड़का गिलास में चाह! ओह चाह हिया कहाँ?’’
‘‘मर
सरधुआ! चाह त हियैं बनबे करेइ छै!’’
‘‘नइगे
माई, ऊ
सब बनिहारवाला चाह में हफीम के पानी मिलाय दै छै, वैइसे थकनी हेंठ भे
जाइछै! अ बनिहार लोग खूब काम कइलक।’’
‘‘कत्ते
देर काम करै छहि?’’
‘‘सात
बजे भोर सै छः बजे साँझ तक! बीच में रोटी खाइके छुट्टी- एक घंटा।’’
‘‘सब
ताश खेललक, हम्में
अपनी बंसुरी- बंजइलौं। हमर मलकिनी ठीक छौ। हाँक पारतौ- ए विशनदेव! ए विशनदेव!
मलकिनी कै हमर बांसुरी बजेनाई खूब नीक लगैइछै! विद्यापति, चैतावर सुने लेल पागल।
पढ़लो छै गे माई
बी.ए.
पास!’’
‘‘खूब
सुखितगर मालिक छौ?’’
‘‘खूब
कि फटफटिया, ट्रैक्टर, जीप, महल सन घर। दूगो बेटा।
दिल्ली में नौकरी में लागल, टीभी
से हो छै!’’
‘‘उ
कथी?’’
‘‘जेना
रेडियो में खाली गाने बोलई छै ने, टी.भी. में गाना के
साथ-साथ सिनेमा एहन फोटूओ देखेवई छै!’’
‘‘मालिक
मारै-पीटे त नईं न छौ!’’
‘‘कखनो-कखनो, गाली हरदम भेनचो…भैनचो बकै छै।’’
‘‘की
करभी, पैसा
कमेनाइ खेल नई छै। मन त नई लागै होतौ?’’
‘‘गरीब
नईं रहने माई, पंजाब
कहियो नईं जैति अइ रे इ पैसा…’’
विशुनदेव
का गौना सामने था। खर्चा जुटाने उसे दूसरी बार भी पंजाब जाना पड़ा। अपने इलाके में
न सालों-भर मजदूरी का उपाय, और
मजदूरी भी पंजाब से आधा। विशुनदेव पंजाब से थोड़ा भविष्य लाने गया था।
रात
में कोई गाड़ी पंजाब नहीं जाती
नियॉनलाइट
से जगमगाती नई दिल्ली स्टेशन के प्लेटफार्म पर उतरते ही उसे लगा कि इतने लोगों के
समुद्र में वह खो जाएगा। भीड़, धक्कम-मुक्का, अजनबी लोग और इतनी
रोशनी! उसने अपने सीने को कसकर दबा लिया ताकि टिकट, पैसा और पता वाला
पोस्टकार्ड कोई मार न ले। वह ठिठक गया, पता नहीं गेट किधर है।
आखिर भीड़ में वह घुस गया। ओवर ब्रिज पारकर स्टेशन के बाहर आ गया।
बाहर
टैक्सी, कार
और थ्री व्हीलर की कतारें। रात का समय। सबकुछ स्वप्न-लोक-सा था जैसा उसने हिन्दी
फिल्मों में देखा था। आसाम मेल रास्ते में ही पाँच घंटे लेट हो गई थी। उसे मालूम
था कि दिल्ली से ट्रेन या बस से उसे अमृतसर जाना पड़ेगा। वह मुसाफिरखाने की ओर बढ़ा।
पंजाब जानेवाली गाड़ी के बारे में किससे पूछे, सब तो अफसर की तरह लग
रहे थे। मुसाफिरखाने के एक कोने में कुछ साधारण मैले-कुचैले कपड़ों में थकी-बुझी
आँखोंवाले लोग टिन की बदरंग पेटियों के पास बैठे थे। उन्हीं की तरफ बढ़ा।
‘‘ऊ
सामनेवाली खिड़की पर जाकर पूछो!’’
खिड़की
पर कई लोग जमे थे। जब लोग हटे तो उसने बाबू से पूछा।
‘‘बाबू, अमृतसरवाली चली गई?’’
‘‘हाँ!’’
‘‘अब
दूसरी गाड़ी कब जाएगी।’’
‘‘अब
तो भैया, कल
जाएगी!’’
‘‘इ
तो बड़ा स्टेशन है?’’
‘‘आजकल
रात में कोई गाड़ी पंजाब नहीं जाती।’’
वह
मुड़ा, तो
बाबू भी अपने दोस्त से बात करने लगा।
‘‘सारे
हिन्दुस्तान को पता है, रात
में कोई ट्रेन पंजाब नहीं जाती फिर भी पूछ रहा था!’’ बाबू के दोस्त के स्वर
में उपहास था।
‘‘बिहारी
भैया था!’’ बाबू फिस्स से हँस पड़ा।
‘‘जलंधर, लुधियाने, सारे पंजाब में ये लोग
भरे हैं।’’
‘‘अरे
बिहार से आनेवाली गाड़ी को पंजाब में भैया एक्सप्रेस कहते हैं! उस तरफ हर गाड़ी में
ये लोग ठुसे रहेंगे।’’
‘‘वहाँ
इन्हें काम नहीं मिलता?’’
‘‘काम
मिलता तो पंजाब थोड़े ही मरने जाते! भूख थोड़े ही रुकती है, इसलिए भैया एक्सप्रेस
चलती रहेगी…सरकार
की पटरी, सरकार
की गाड़ी सब है ही!’’
घर
पंजाब हो गया है ‘आजकल’ रामदेव के लिए बड़ा शब्द
है।
चित्र साभार - फाइनआर्ट अमेरिका, गूगल इमेजेस |
पिछले
चार महीने सोते-जागते पहाड़ की तरह गुजरे। भैया कैसा होगा? पंजाब में बहा खून का
हर कतरा, वहाँ
चली हर गोली माई को लगती। रेडियो विशुनदेव का हाल-चाल थोड़े ही बोलेगा। माई फिर भी
पंडितजी के यहाँ रेडियो सुन आती। वह भी चाय की दुकान पर अखबार पढ़ आता। रजिस्ट्री
चिट्ठी लौट आई तो माई रात-भर रोती रही। बेगूसराय जाकर उसी पते पर तार भिजवाया
लेकिन कुछ नहीं पता चला। माई मन्नतें माँगती, पंडितजी के पंचांग से
शगुन निकलवाती, रो-धोकर
उपले-गुल बेचने फर्टिलाइजर टाउनशिप निकल जाती। इतनी मेहनत पर मौसी टोकती तो माई का
एक ही जवाब होता, ‘‘एगो बेटा पंजाब में, इ रमूआ पढ़ लिय जे एकरा
पंजाब नईं जाए पड़ैय।’’
भौजी
के यहाँ से अक्सर पुछवाया जाता- कोई खबर मिली? माई को लगता- शादी टूट
जाएगी। कोई कब तक जवान बेटी को घर बिठाए रखेगा। माई को लगता, बेटे का पता नहीं, पतोहू छूट रही है।
कोशिश करती कि किसी तरह बिखरते घर को आँचल में समेटे रहे।
‘‘रमुआ
से पुतोहू के बियाह के देबैई,’’ माई से यह सुनते ही
रामदेव शर्म से काठ हो गया था। भौजी की साँवली, निर्दोष, बड़ी-बड़ी आँखोंवाला
चेहरा उसके सामने घूम गया था। अशराफ के घर में ऐसा होगा? शादी के बाद भैया पंजाब
से लौट आया तो? माई
पागल है!
लेकिन
माई ने हारना नहीं सीखा था। जो कुछ बचा था, उसे छाती से चिपकाए
रहना चाहती थी। एक चक्कर डाक बाबू के यहाँ लगा लेती। ‘‘लोभ में बेटे को पंजाब
भेज दिया, अब
काहे को रोज चिट्ठी के लिए पूछती हो?’’ पोस्टमैन उसे झिड़क
देता।
माई
का सूखता शरीर, पंडितजी
का सूद, जनार्दन
का मंसूबा, भौजी
की उदासी, भाई
के जीवन का संशय, रोज
की किचकिच, माई
का रुदन…रामदेव
को लगता- घर पंजाब हो गया है। रात-रातभर सो नहीं पाता। पढ़ता-लिखता क्या खाक! बस एक
चीज काबिज थी- पंजाब!
खून
की तरह जमा शहर
अमृतसर
आते-आते बस में यात्रियों की बातचीत सुनते-सुनते मन में ऐसा डर बैठ गया कि वह बस
से भी डरने लगा।
बस
से उतरते-उतरते फैसला ले लिया- जो भी हो, जैसे-जैसे रात अमृतसर
के बस अड्डे पर काट लेगा लेकिन बस से अटारी नहीं जाएगा। साढ़े छह बजे शाम से ही बस
अड्डे पर हड़बोंग मची थी। सबको ऐसी जल्दी थी कि जैसे बाढ़ में बाँध टूट गया हो और सब
जान बचाने के लिए भाग रहे हों। दुकानें फटाफट बन्द हो रही थीं। ठेलेवाले अपनी
दुकानें बढ़ा रहे थे। खाली बसों के ड्राइवर-खलासी पास के ढाबों में जल्दी-जल्दी
खाना खा रहे थे। ढाबे के मालिकों को भी जल्दी थी। इसीलिए उनके नौकर भी रेस के
घोड़ों की तरह हाँफ रहे थे। सबको एक ही डर था…सात बजे कर्फ्यू
लगनेवाला था।
रामदेव
ने मूँगफलीवाले का अक्षरशः अनुसरण किया। अपना सत्तू घोलकर पी गया और उसी के साथ
लेट गया। मूँगफलीवाला राँची का ईसाई आदिवासी था। तीन साल पहले घर से भागकर यहाँ
आया था। चेहरे पर बढ़ी दाढ़ी और सिर पर गमछे का मुरैठा से उसके सरदार होने का भ्रम
होता था। हँसता तो चमकीले दाँत मोतियों की तरह जगजगा उठते। निष्पाप आँखें छलछला
आतीं। जेम्स ‘अपने
देस’ के
रामदेव जैसे आदमी से मिलकर खुश हो गया था। दोनों गठरी की तरह कोने में दुबके थे।
और भी बहुत गठरियाँ थीं। गुमसुम!
साभार - साची आर्ट, गूगल इमेजेस |
कर्फ्यू
लग चुका था।
चादर
की ओट से रामदेव ने झाँककर देखा। बाहर सब कुछ थमा था। ईंजन की तरह दहाड़ता बस अड्डा
लाश की तरह खामोश था। न पंछी, न हवा, न कोई पत्ता हरकत कर
रहा था। चीख भी निकलती तो डर से बर्फ हो जाती। चलती गोली हवा में थम जाती। पृथ्वी
का घूमना जैसे बन्द हो गया था। साँसें बेआवाज चल रही थीं। मच्छर थे कि गलीज में
बेफिक्री से भिनभिना रहे थे।
सन्नाटे
में ही वर्दीवालों से भरी एक जीप गुजर गई। रामदेव को लगा कि गरदन पर से कोई धारदार
चाकू गुजर गया। ‘‘इधर
में ऐसा ही होता है।’’ जेम्स फुसफुसाया, ‘‘चुप सो जाओ, पेशाब करने भी मत जाना।’’ रामदेव सोने की कोशिश
करने लगा। दिन-भर की थकान के बावजूद उसे नींद नहीं आ रही थी।
रात
के कोई ग्यारह बजे बस अड्डे पर जैसे कहर टूट पड़ा। वर्दीवाले सबों को बूट की ठोकरों
से जगा रहे थे। पचास सवाल। कहाँ से आए हो? क्या मतलब है? डर से कोई हकलाया तो
लात, घूँसे, बन्दूक के कुंदे से
ठुकाई। तीन नौजवान सरदारों को घसीटते हुए ले गए। बिहार का नाम सुनकर वे आगे बढ़ गए
थे। रामदेव फिर भी थर-थर काँपता रहा। जेम्स फिर सो गया जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो।
लेकिन रामदेव के कानों में उन तीन नौजवानों की चीख जिद्दी मधुमक्खी की तरह भनभनाती
रही। रफ्ता-रफ्ता सब चीजों की आदत हो जाती है। सो धीरे-धीरे शहर भी खून की तरह जम
गया।
अग्गे
पाकिस्तान है!
स्टेशन
पर टिकट लेकर बैठा तो उसे कुछ इत्मीनान आया। उसने अपनी जेब से मुड़ा-तुड़ा, बदरंग पोस्टकार्ड
निकाला और पता पढ़ने लगा- विशुनदेव, इन्दर सिंह का फारम, गाँव रानीके, भाया अटारी, जिला अमृतसर (पंजाब)।
पढ़कर उसने सामने बैठे बुजुर्ग सरदार की ओर बढ़ा दिया ताकि वह रानीके जाने का रास्ता
बता दे।
सरदारजी
ने अफसोस में सर हिलाया और कहने लगे, ‘‘मैं हिन्दी पढ़ना नहीं
जानता। सारी उमर उर्दू पढ़ी है। बस हिन्दी समझ लेता हूँ। बता क्या है?’’
‘‘मुझे
रानीके अटारी गाँव जाना है। अनजान आदमी हूँ। बिहार से आया हूँ।’’ रामदेव का संकोच
सरदारजी की आत्मीयता से घुल गया और उसने पूरा पता पढ़ लिया।
‘सन्तोख
सिंहवाला रानीके? अग्गे
अटारी स्टेशन आऊँगा, तू
उत्थे उतर जाणा। बाहर टाँगेवाले नूँ पुच्छ लईं। तू तो मुंडा-खुंडा है, पजदा-पजदा दो मील चला
जाएगा। अच्छा सुण, अंबरसर
दे बाहर बुर्जावालियाँ दी बस जांदा, तू सीधा रानीके उतर
जाणा सी। गां दे बाहर ही सन्तोख सिंह दा दो मंजिली कोठी नजर आऊँगा। उत्थे पुच्छ
लेणा। सामने इन्दर सिंह दा फारम है।’’
रामदेव
इतना ही समझ पाया कि अटारी स्टेशन से दो मील पर रानीके गाँव है। गाँव के बाहर
सन्तोख सिंह की दो मंजिली कोठी है। उसके सामने इन्दर सिंह का फारम है।
‘‘एन्नी
दुरो कल्ला किंदा आ गया? बिहार
के हो कि यू.पी. के?’’
‘‘बिहार।
रानीके गाँव भाई को खोजने जा रहा हूँ।’’
‘‘तेरी
तो मूँछें भी नहीं फूटी हैं? पुत्तर हिम्मत ही इंसान
दा नाम है।’’
गाड़ी
रुकते ही ‘अच्छा’ कहकर बुजुर्ग उतर गए।
रामदेव उन्हें जाते, खिड़की
से, देखता
रहा। गाड़ी खिसकी तो टिकट-चेकर सामने था।
‘‘टिकट?’’
चेकर
ने यान्त्रिक लहजे में पूछा।
‘‘अटारी
कितने स्टेशन है?’’ रामदेव टिकट थमाते हुए पूछ बैठा।
‘‘पहली
बरां आया तू? अगला
स्टेशन है। उत्थे उतर जाणा, अग्गे
पाकिस्तान है!’’ चेकर टिकट पंच कर आगे बढ़ गया।
रामदेव
सन्न! कहाँ आ गया? पाकिस्तान!
स्वेरे
देखेंगे
क्रीच…क्री…च। गाड़ी रुक गई। उतरकर
स्टेशन के गेट की तरफ बढ़ा। बाहर निकलते ही ताँगेवाले ने उससे पूछा,
‘‘पाकिस्तानी
गाड़ी है जी? टेम
तो उसी का है।’’ उसने भी पलटकर पूछ लिया, ‘‘रानीके गाँव कौन-सी सड़क
जाती है?’’
‘‘सीधी
सड़क जाती है…आगे
भी पूच्छ लेणा।’’
साभार - साची आर्ट, गूगल इमेजेस |
सूरज
सर पर चढ़ गया था। तेज चलने की वजह से वह पसीने-पसीने हो रहा था। पर मंजिल पर
पहुँचने की खुशी ने उसे बेफिक्र कर दिया था। सड़क के किनारे गेहूँ के कटे, नंगे खेत थे। उसके गाँव
की तरह ही थोड़ा तिरछा, औंधा, साफ आसमान था। हवा सोई
हुई थी, गर्म
बगूले सीधा उड़ते और सूखे पत्तों, धूल को ले उड़ते। सुनसान
सड़क पर दूर-दूर तक कोई राही नहीं था। चारों तरफ तापमान का राज था। रामदेव का ध्यान
भाई विशुनदेव की तरफ था। रोज-रोज के कर्फ्यू में चिट्ठी कैसे पहुँची। भैया भी
चिट्ठी का इन्तजार करता होगा। भैया उसे देखते ही लिपट जाएगा। वह भी आँसू नहीं रोक
सकेगा। भैया तिल का लड्डू देखते ही खिल जाएगा। लेकिन भैया…उससे पहले खाने-पीने को
पूछेगा। भैया
घुमा-फिराकर भौजी के बारे में भी पूछेगा। भाई से जनार्दन से बदला लेने के लिए जरूर
कहेगा…
उसे
सामने सड़क के किनारे दो मंजिला मकान दिख गया। एक सरदारजी आगे-आगे जा रहे थे। उसने
अपनी चाल तेज कर दी।
‘‘भाई-साहब, इन्दर सिंह का फारम
किधर है?’’ उसने पास पहुँचकर पूछा।
‘‘किसनू
मिलना? तू
आया कित्थों?’’ सरदारजी ने खुलासा ही पूछ लिया। पर रामदेव की समझ में ठीक से न आ
पाया।
‘‘विशुनदेव, बिहारी।’’ रामदेव अटपटाकर बोला।
‘‘बात
तो पल्ले पैदी नई, चल
सरपंच सरूप को चल, उत्थे
जाके गल करी,’’ सरदारजी ने उसे पीछे-पीछे आने का इशारा किया।
परेशान
रामदेव उसके पीछे-पीछे बढ़ता गया। कुछ दूर जाकर, पुरानी ईंटोंवाले
महलनुमा घर के सामने जाकर दोनों रुक गए। रास्ते में सरदारजी ने उसका नाम पूछ लिया, अपना नाम भी बता दिया-
किरपालसिंह। किरपालसिंह ने आवाज दी।
‘‘सरपंजी, सरपंचजी, थल्ले आओ? एक परदेशी बन्दा आया!’’ कुरता-पजामा पहने एक
लम्बा-तगड़ा गोरा-चिट्टा आदमी बाहर आया। उसके चेहरे पर हल्की नुकीली-काली मूँछें सज
रही थीं। किरपालसिंह को देखकर मुस्कुराया और उसका हाथ पकड़कर अपनी ओर खींचने लगा।
‘‘किरपाल्या, ऐ बन्दा कोनी? इनु कित्थो फड़के ले आया?’’
‘‘सरपंचजी, मैं कित्थों ले आऊँगा? ए बन्दा केहदी खोजथ
आया। बोल्दा हिन्दी, तुसी
समझ लो! गल-बात कर लो!’’
सरपंच
सरूप रामदेव की ओर मुड़ा, उसे
गहरी नजरों से देखा।
‘‘काका, क्या बात है?’’
‘‘मेरा
भाई विशुनदेव इन्दर सिंह के फारम पर काम करता है। बहुत दूर बिहार से आया हूँ। ये
चिट्ठी है।’’ रामदेव ने कार्ड सरपंच सरूप के हाथ में थमा दिया। सरपंच सरूप ने
पोस्टकार्ड उलट-पुलटकर पढ़ा और रामदेव को वापस थमाते बोला,
‘‘पता
तो ठीक है।’’
‘‘किरपाल्या, देख पाई दी खिंच एन्नी
दू ले आई…अरे
याद आया। एक बिहारी मुंडा इंदर दे फारम ते देख्या सी…चल तुझे इंदरसिंह के
पास ले चलता हूँ।’’ सरपंच सरूप आगे बढ़ा।
रामदेव
उसके पीछे चला। किरपाल सिंह ‘अच्छा’ कहकर अपनी राह
चला
गया।
तेज
धूप में चलते दोनों पास ही इंदरसिंह के फार्म पर पहुँचे।
‘‘स-सिरी
अकालजी!’’ महिला ने शालीनता से कहा।
सरपंच
ने सिर हिलाया।
‘‘स-सिरी
अकाल! इंदरसिंह कहाँ गया?’’
‘‘वो
तो कल सवेरे आएँगे जी। अंबरसर में कुछ काम था।’’
‘‘ये
मुंडा अपने भाई से मिलने आया है। इसका भाई तेरे फारमदा काम करता है…क्या नाम बताया?’’
‘‘विशुनदेव,’’
रामदेव
ने साफ-साफ लहजे में कहा। उसके चेहरे से उत्सुकता का लावा जैसे फूट पड़ना चाहता था।
महिला ने उसे गौर से देखा।
‘‘विशुनदेव!
इस नाम का एक भैया तो था जी, तीन महीने कपूरथले लौट
गया। पिछले साल उसे हम अपने मामाजी के पास से लाए थे।…इस साल भी बिहार से आया, पर बोलता था- दिल नई
लगता, तीन
महीने पहले कपूरथले लौट गया।’’
सरपंच
सरूप ने रामदेव की ओर देखा। उसे लगा कि अब रामदेव रो देगा।
‘‘देखो
मनजीत कौर!’’ सरपंच सरूप ने आजिजी से कहा, ‘‘लड़का बिहार से आया है, परेशान है…इसके पास तेरा ही पता
है।’’
‘‘सरदारजी
के आने से बात कर लेणा जी, ज्यादा
वही बतलाएँगे!’’ कहकर मनजीत कौर मुड़ गई।
‘‘चल
मुंडा! मेरे यहाँ ही रोटी-पानी कर लेना। स्वेरे देखेंगे!’’
बाँसुरी
क्या बोलती है?
रात
धमक आई थी। दालान पर किरपालसिंह और सरपंच सरूप बातें कर रहे थे। घूम-फिरकर बात
पंजाब के हालात पर ही चलती। अखबार, रेडियो के हवाले
अफवाहों का विश्लेषण चल रहा था।
दालान
के किनारेवाली तख्त पर लेटा, चादर से मुँह ढँके
रामदेव के सामने विशुनदेव का चेहरा बार-बार कौंध रहा था। उसे रह-रहकर रुलाई आ रही
थी। सरदारनी पहले तो अच्छे से बोली पर विशुनदेव का जिक्र आते ही साफ मुकर गई-
सरदारजी से बात कर लेना। अगर विशुनदेव तीन महीने पहले कपूरथले चला गया तो वहाँ से
चिट्ठी जरूर लिखता। जेल में भी होता तो वहीं से लिखता। दो सौ रुपए में वह अपने भाई
को कहाँ-कहाँ खोज पाएगा? कहीं
भैया…आखिर
रुलाई फूट पड़ी। हिचकियाँ, नाक
से बहता पानी और खाँसी ने भेद खोल दिया।
किरपालसिंह
लपका और रामदेव को झकझोरकर पूछने लगा, ‘‘ए मुंडा, ए मुंडा…सरपंचजी देखो!’’
सरपंच
सरूप भाँप गया। वह उठकर रामदेव के पास आया और दिलासा देने लगा,
‘‘देखो
भाई, कल
इन्दरसिंह से साफ-साफ तेरे भाई का पता पूछ लेंगे। रुपए-पैसे की जरूरत हुई तो दे
देंगे! तू कपूरथले जाकर भाई से मिल लेना। क्यों किरपालसिंह?’’
‘‘हंजी, मुंडे नू मदद जरूर करनी
चाहिए। से ग्रीब लोग हैं…’’
कब
रात गुजर गई, सोचते-सोचते
रामदेव को पता ही नहीं चला।
सरपंच
सरूप को देखते ही इन्दरसिंह चिल्लाया, ‘‘आओ महाराज! मनजीत कौर
कह रही थी उस बिहारी मुंडे के बारे में। मैं अंबरसर चला गया था। दोनों पुत्तरों पर
दिल लगा रहता है। रात जाकर टेलीफोन से बात हुई। जी को चैन आया। स्वेरे वहाँ से
चला। बस समझो अभी आ ही रहा हूँ…मैं भी मूरख! चलो, अन्दर बैठते हैं।…कुछ चाय-साय भिजवाना,’’
कहकर
इन्दरसिंह शुरू हो गया, ‘‘हंजी, लड़का
बड़ा भला था। पिछले साल भी मेरे पास था। इस साल आया तो उखड़ा-उखड़ा रहता। दिल नहीं लगता
था। टिक नहीं पाया। चल दिया। कपूरथले मनजीत के मामा के यहाँ गया होगा। ऐसा ही बोल
रहा था। दो महीने हो गए…अब
आप कहो तो इस मुंडे को खर्चा- पानी दे दूँ।’’
इन्दरसिंह
की वाचालता से सरपंच सरूप शक में पड़ गया। कल मनजीत कौर कह रही थी, लड़के को गए तीन महीने
हुए। यह कहता है दो महीने हुए। और यह वह खर्चा-पानी क्यों देना चाहता है?
‘‘इन्दरसिंह, लड़का जिन्दा है या नहीं?’’
सरपंच
ने सधी आवाज में पूछा।
‘‘इन्दरसिंह
के चेहरे पर जैसे स्याही पुत गई। रामदेव का जी धक्क! इन्दरसिंह जबरन अपने चेहरे पर
काइयाँ मुस्कुराहट लाता बोला, ‘‘मरने की बात कहाँ से आ
गई?…लड़का
जरूर जिन्दा होगा जी। कपूरथले होगा या और कहीं चला गया होगा! भैया लोगों का क्या
ठिकाना? आज
यहाँ काम किया, कल
वहाँ…’’
सरपंच
सरूप के पीछे खड़ा रामदेव सिसकियाँ लेने लगा। मनजीत कौर चाय की ट्रे लेकर कमरे में
घुसी। रामदेव को रोता देखकर, पल-भर के लिए ठिठक गई।
मनजीत कौर ने गहरी नजरों से पति को देखा और उसके होंठ भिंच गए। यन्त्रवत ट्रे को
सेन्टर टेबुल पर रख, तेजी
से मुड़कर अन्दर चली गई।
सरपंच
को साफ लगा कि इन्दरसिंह झूठ बोल रहा है। मनजीत कौर भी छिपा रही थी। ऐसा झूठ बोलने
की जरूरत क्या है? विशुनदेव
जिन्दा नहीं है। सरपंच की आत्मा पर ठक से हथौड़े जैसी चोट लगी, वह गुस्से से तिलमिला
उठा।
‘‘साफ
बता इन्दरसिंह, विशुनदेव
जिन्दा है या नहीं। जिन्दा है तो उसका पता दे!’’
‘‘कह
तो दिया, वह
यहाँ से चला गया। जिन्दा ही होगा।’’
‘‘इस
लड़के पर रहम कर। इतनी दूर से आया है। झूठ बोलने से क्या फायदा?’’
‘‘ओय
सरूपे, तू
मुझे झूठा कहेगा?’’ इन्दरसिंह भड़क उठा, ‘‘सरपंच से हार गया तब भी
अकड़ नहीं गई। तू होता कौन है जो मुझसे पूछने चला आया? मैं तुझे कुछ नहीं
बताऊँगा! बड़ा आया है लड़के की तरफदारी करनेवाला!’’
सरूप
अवाक! रामदेव फुक्का मारकर रो पड़ा। अचानक रामदेव उटा और इन्दरसिंह के पाँव पर गिर
पड़ा!
‘‘मालिक!’’ रोता रामदेव चीखने लगा,
‘‘बता
दीजिए मालिक मेरा भैया कहाँ है?…बहुत उपकार होगा मालिक!
बता दीजिए मालिक…मालिक…’’
‘‘तू
पत्थर है…इन्दरसिंह!’’ सरपंच सरूप घृणा से उफन
उठा, ‘‘लम्बा-चौड़ा फारम, इतना पैसा, पर इन्सानियत जरा भी
नहीं…परदेशी
की मदद तू नहीं कर सकता…खैर…चल मुंडे!’’
सरपंच
सरूप उठ खड़ा हुआ। आगे बढ़कर रामदेव को झकझोरकर उठाया।
‘‘भाई
साहब रुकना!’’
अन्दर
से मनजीत कौर की तेज आवाज आई। दरवाजे से ही मनजीत कौर ने एक झोला सरपच के पाँव के
पास फेंका! उफनती मनजीत कौर पर जैसे दौड़ा पड़ गया हो!
‘‘ये
विशनदेव का सामान है!…वह
दुनियाँ में नहीं है!’’ कहते-कहते मनजीत कौर फूट-फूटकर रोने लगी। हिचकियों के बीच उसने कहा,
‘‘मुझसे
बोलकर गया कि अंबरसर से घरवालों के लिए कपड़े लेने जा रहा हूँ, देस जाना है। अंबरसर से
लौटकर आता तो यहाँ से पैसे लेकर जाता…तीन बजे दिन में गया।
बस बिगड़ने से शाम हो गई। छेड़हट्टा के पास रोककर मार-काट हुई…उसी में…’’
गूँगे
रामदेव की आँखों से आँसू लुढ़क रहे थे। सरपंच सरूप मनजीत कौर की बात सुनकर स्तब्ध
था और अपराधी की तरह इन्दरसिंह की आँखें फर्श में गड़ी हुई थीं।
‘‘मैं
तीन दिनों तक रोती रही…मेरे
भी बेटे हैं…ये
फँस जाने के डर से बात छिपा रहे थे। कल रात-भर हम दोनों झगड़ते रहे- छिपाना क्या, वह भी किसी का बेटा है, भाई है…कल मैं भी झूठ बोली…हमें माफ करो सरपंचजी!’’ मनजीत कौर के अन्दर
बैठी माँ ने उफान मारा। उसने आगे बढ़कर रामदेव को छाती से लगा लिया। अपनी ओढ़नी से
उसके आँसू पोंछने लगी।
बीच
में पड़े विशुनदेव के झोले से उसकी बाँसुरी झाँक रही थी। सब चुप थे। आँसू की तरह
बाँसुरी भी जैसे कुछ बोल रही थी। बाँसुरी क्या बोल रही थी, कोई समझ नहीं पाया…
तू
यहाँ कब तक भुगतता रहेगा?
चित्र साभार- साची आर्ट, गूगल इमेजेस |
देर
तक उस दिन नहर के किनारे बैठा रहा। नहर का कलकल पानी, आजाद हवा…सब बेकार! सरपंच के घर
की तरफ चल पड़ा। कल उसे रुपए मिल जाएँगे- दो हजार। सरपंच साहब उसे अमृतसर में
दिल्लीवाले बस में बिठा देंगे। अमृतसर के लिए आज उनको याद दिला देनी चाहिए। वह
सोचता आगे बढ़ा जा रहा था कि फौज की तीन जीपें गुजरीं। लाउडस्पीकर से पंजाबी में
कुछ घोषणा की जा रही थी। थोड़ी दूर और गया कि और तीन जीपें गुजरीं। रामदेव घबरा
गया। जल्दी-जल्दी सरपंच के घर की ओर बढ़ने लगा।
सरपंच
के घर के पास पहुँचकर वह हाँफ रहा था।
‘‘सरपंच
साहब, पाकिस्तानी
फौज घुस आई क्या?’’
‘‘नहीं, काका,’’
सरपंच
सरूप ने लम्बी साँस ली, ‘‘अपनी फौज है…यह बहुत बुरा हुआ!’’
‘‘क्यों?’’
रामदेव
ने हौले से पूछा।
‘‘तुम
क्या समझो। हम बार्डर के लोग समझते हैं! फौज आती है, जाती है…पर जो ख्शलिश छोड़ जाती
है, उसका
कोई इलाज नहीं!…चल
इन्दरसिंह के पास चलते हैं!’’
फँसे
रामदेव के लिए कोई उपाय नहीं था। टी.वी. पर जालंधर, लाहौर की खबरें
सुनते-देखते रहो। कुछ मालूम नहीं, कहाँ क्या हो रहा है।
पूरे पंजाब को जैसे सुनबहरी हो गया हो। बाघा, अटारी जैसे फौजी छावनी
बनी थी। घरों में चीख डर से दुबकी पड़ी थी। हवा की भी तलाशी चल रही थी। घृणा के
अंधड़ में मौन ही पत्तियों की भाषा थी। परिन्दे की तरह अफवाहें उड़तीं। मौत की खबर
चीख भी नहीं बन सकती थी। लोग कबूतरों की तरह दुबके रहते। रात भी जगी रहती। हरी
वर्दी में लोग सन्नाटे को कुचलते रहते।
तलाशियों
ने मालकिन को तोड़ दिया था। इन्दरसिंह टी.वी. के पास
बैठे
रहते। बीच-बीच में रेडियो पर भी खबरें सुनते। रामदेव मालकिन की मदद रसोई में जाकर
कर देता। रोना एक सिलसिला बन गया था। सरपंच जी ढाढ़स देने आए।
‘‘किरपाल
का भाई अंबरसर में सेवादार था…किरपाल सब्र कर सकता है! दिल्ली में सब ठीक-ठाक है, आखिर राजधानी है। तू
नाहक परेशान है मनजीत कौर! हिम्मत रख!’’
‘‘कैसे
चुप हो जाऊँ! एक फूल टूटता है तो हर पत्ता रोएगा…उस पार के गोले दगते थे
तो हमारे में जोश होता था। अब तो इधर से ही…कोई इस बार उन्हें
बेटों की तरह कलेजे में क्यों नहीं लगाता?…जिनकी देख हिम्मत होती
थी, वही
हमें डराते हैं। बस अब तो वाहे गुरु का आसरा है!’’ रामदेव को रोती-कलपती
मनजीत कौर माई की तरह लगी। दिल्ली में बसे उनके दोनों बेटों का क्या हुआ होगा?
तूफान
की तरह गुजरे वे दिन। बारह दिन बाद कर्फ्यू खुला तो आशंका की तेज बयार थी। किसका, कौन मरा, कहाँ चला गया? आखिर इन्दरसिंह ने कहा,
‘‘अंबरसर
जाना है, तू
यहाँ कब तक भुगतता रहेगा?’’
सफर
तमाम नहीं
मलवे
के शहर अमृतसर में आतंक का तना हुआ छाता था। आँखों के दिए बुझे-बुझे थे। मरघट-सा
सन्नाटा। बस की आरामदेह सीट पर बैठा रामदेव खिड़की से चेहरा सटाए बाहर देख रहा था।
इन्दरसिंह और सरचंप सरूप नीचे खड़े थे। हचके के साथ बस आगे बढ़ी। रामदेव ने झट हाथ
जोड़ दिए।
उनके
ओझल होते ही उसने लम्बी साँस ली। आँखें बन्द करते ही जैसे माई सामने खड़ी हो गई। वह
झूठ बोलना चाहता है- भैया का पता नहीं चला। पर दो हजार रुपए का क्या करेगा! गोद
में पड़ा विशुनदेव का झोला भारी लगने लगा। बाँसुरी झोले से बाहर झाँक रही थी।
विशुनदेव का चेहरा उसके सामने घूम गया। अचानक उसका माथा घूमने लगा- आँसुओं से तब
मनजीत कौर का चेहरा, किरपाल
सिंह, इन्दरसिंह
का झुर्रियों की तरह लटकता चेहरा सामने आता और ओझल हो जाता।…फिर दहाड़ मारकर रोती
माई…बिस्तर
पर मुँह देकर रोती भौजी…
उसे
जोर से कँपकँपी आई। रोम-रोम खरखरा उठे। नहीं!’ वह धीरे से बुदबुदाया।
आगे की सीट का हैंडिल उसने मजबूती से पकड़ लिया। गुर्राती बस आगे बढ़ती गई। आगे बढ़ना
ही था, भैया
एक्सप्रेस का सफर तमाम नहीं हुआ था।
(1985)
(समाप्त)
00000
अरविन्द जैन की चर्चित किताबों की एक झलक |
(फाल्गुनविश्व.कॉम निजी प्रयासों से संचालित एक साधारण प्रयास है कि जिसके जरिए अपने समय और सत्ता से संवाद की कोशिश जारी है).
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