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फाल्गुन विश्व '20 से 26' मार्च 2022 का अंक प्रकाशित

 इस बार के अंक में -  उम्मीद से एकाकार फिल्म द कश्मीर फाइल्स की समीक्षा  कहे बसमतिया बतिया हंसि-हंसि ना! कहानी बूढ़े मूर्ख की  अलोक धन्वा से पंकज चतुर्वेदी की गुफ्तगू  बेल के औषधीय महत्व एवं गुण  अंक डाउनलोड के लिए  लिंक
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फाल्गुन विश्व '13 से 19 मार्च' का अंक प्रकाशित...

 तकनीकी कारणों से फाल्गुन विश्व के अंक के पीडीएफ यहाँ वेबसाइट पर प्रकाशन स्थगित थे. कल ही तकनीकी दिक्कत दूर हुई और आज पेश है फाल्गुन विश्व का ताजा अंक... लिंक आवरण पर है मशहूर कवि-चिन्तक केशव तिवारी द्वारा मोबाइल से खींचा गया चित्र...  भीतर के पन्नों पर  भृगुनंदन त्रिपाठी  प्रफुल्ल ठाकुर  सुशोभित  अरविन्द चतुर्वेद  सुधीर केवलिया  रवीश कुमार  अमिता मिश्रा  एवं बुद्धिसेन शर्मा  लिंक

लोकमत समाचार में प्रकाशित स्तम्भ 'मन-नम' से कुछ भाग...

 सवाल-जवाब : एक  सवाल - जवाब : दो  अकेला  उलूक भय  संक्रांति  नया साल और नैनूलाल 

सृजन : मेरे होने का प्रमाण... उर्फ़ मैं हूँ मतलब कि सृजन अभी बदस्तूर जारी है...

 अब तक मौन साधना में प्रवृत्त रहा हूँ. साधना अभी भी मौन ही जारी रहेगी. किन्तु अब सृजन मुखर होगा. अभी तक कभी इस ओर तवज्जो नहीं दिया. अब दूँगा. लिखूँगा. सतत लिखूँगा. जो भी लिखूँगा, सोचूँगा, वह इस मंच पर लगातार प्रकाशित करता रहूँगा. एक लेखक अपने पाठकों से सम्वाद साधता रहता है. मेरे लिए आप पाठकों तक पहुँचने, आपसे सम्वाद करने का यही सशक्त और सही माध्यम होगा. यहाँ जो प्रकाशित होगा, सम्भव हुआ तो वही पत्रिका 'फाल्गुन विश्व' के स्वरूप में भी हर सप्ताह छपा करेगा. बहरहाल, यही अभी योजना-रूप में ही है. इस मंच पर सतत लेखन अब एक निरंतर गतिशील रहने वाली प्रक्रिया होगी. लेखन के छत्तीस वर्ष; लेकिन तीन किताबें भी नहीं, फिर क्या लिखा? सुबह-सुबह आज खुद से ही यह सवाल किया. जो जवाब पाया उससे हौंसला और बढ़ गया. मैं यह समझ पाया कि लेखन के नहीं सृजन के छत्तीस वर्ष पूर्ण हो रहे हैं. बीते साढ़े तीन दशक से भी ज्यादा समय से मैं अपना सृजन जीता भी रहा हूँ. जीने में लगा रहा इसलिए तो किताबें नहीं छपा पाया. जीने का, जीवन का अपना वर्तुल होता है, जब तक वह वर्तुल पूर्ण नहीं होता, आप सृजन के दूसरे स्तर की तरफ नहीं बढ़त

साप्ताहिक 'फाल्गुन विश्व' का 48वां अंक प्रकाशित...

 आमुख पर इस बार - अंक डाउनलोड करने के लिए  लिंक ख्याली-पुलाव / पुष्पेन्द्र फाल्गुन   रास्ते से गुजरते समय एक विज्ञापन फलक ने ध्यान खींचा. ध्यान से देखने पर मालूम हुआ कि यह किसी की बदमाशी है. कांग्रेस के बैनर पर भाजपा का बैनर चढ़ाया गया था, जिसे किसी ने अपनी बदमाशी से अदभुत रुप दे दिया है. इस नज़ारे ने कई ख्याल मुझ मूढ़-मगज के भीतर भर दिए, जैसे- - इस फलक पर पहले से कांग्रेस का बैनर लगा था, भाजपा ने बिना उसे हटाए अपना बैनर लगा दिया. दोनों बैनर अवैध रुप से लगाए गए हैं, जबकि विज्ञापन फलक जिस विज्ञापन एजेंसी का है, वह इन दोनों के बैनर उतारने की हिम्मत नहीं कर पाता. - लगा कि देश उस विज्ञापन एजेंसी के फलक की तरह है, जिस पर राजनीतिक पार्टियाँ अपना-अपना अवैध कब्ज़ा जमाए हुए हैं. - देश लोगों का है, लेकिन लोगों की मूल भावनाएं, राजनीतिक दलों की भावनाओं के पीछे कहीं दब-छिप सी गयी हैं. लोग यानी लोक यानी लोकतंत्र बस दूर से अपनी दबी भावनाओं के ऊपर चढ़ते इन राजनीतिक मुलम्मों का चश्मदीद मात्र है. - किसी ने बदमाशी से दो राजनीतिक पार्टियों के बैनर को इस अंदाज में फाड़ा कि एक भ्रम सा होता है द